नई दिल्ली (ईएमएस) । सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर स्पष्ट किया है कि काजी की अदालत, काजियात की अदालत व शरिया कोर्ट की कानून में कोई मान्यता नहीं है। उनके द्वारा दिया गया कोई भी निर्देश कानून में लागू नहीं होता है। ना ही उनका फैसला बाध्यकारी है। शीर्ष अदालत की तरफ से यह फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती देने वाली एक महिला की अपील पर दिया गया है, जिसमें फैमिली कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा गया था। जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने विश्व लोचन मदन बनाम भारत सरकार के मामले में 2014 के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि काजी कोर्ट, (दारुल कजा) काजियात कोर्ट, शरिया कोर्ट इत्यादि किसी भी नाम से पुकारे जाने वाले न्यायालयों को कानून में कोई मान्यता नहीं है। शरीयत अदालतों और फतवों को कानूनी मान्यता नहीं है। जानकारी के मुताबिक, महिला की शादी 24 सितंबर 2002 को इस्लामी रीति-रिवाजों के अनुसार हुई थी। दोनों की यह दूसरी शादी थी। 2005 में, काजी की अदालत3, भोपाल, मध्य प्रदेश में महिला के खिलाफ तलाक का मुकदमा दायर किया गया, जो दोनों पक्षों के बीच 22 नवंबर 2005 को हुए समझौते के आधार पर खारिज हो गया। इसके बाद 2008 में पति ने (दारुल कजा) काजियात की अदालत में तलाक के लिए एक और मुकदमा दायर किया। उसी साल पत्नी ने भरण-पोषण की मांग करते हुए धारा 125 सीआरपीसी के तहत फैमिली कोर्ट का रुख किया। जिस पर फैमिली कोर्ट ने महिला के भरण-पोषण के दावे को इस आधार पर खारिज कर दिया कि प्रतिवादी पति ने महिला को नहीं छोड़ा था, बल्कि वह खुद ही अपने स्वभाव और आचरण के कारण विवाद व वैवाहिक घर से चले जाने का मुख्य कारण थी। इसके बाद मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचा, जिस पर हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। बाद में महिला ने शीर्ष अदालत का रुख किया, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने 4 फरवरी को आदेश दिया। हालांकि, यह आदेश अब सामने आया है। शीर्ष अदालत ने कहा कि फैमिली कोर्ट के इस तर्क की भी आलोचना की कि चूंकि यह दोनों पक्षों की दूसरी शादी थी, इसलिए पति द्वारा दहेज की मांग की कोई संभावना नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फैमिली कोर्ट द्वारा दिया गया तर्क कानून के सिद्धांतों से अनजान है। यह केवल अनुमान पर आधारित है। फैमिली कोर्ट यह नहीं मान सकता था कि दोनों पक्षों के लिए दूसरी शादी में दहेज की मांग अनिवार्य रूप से नहीं होगी। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि समझौता डीड भी फैमिली कोर्ट द्वारा किए गए किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा सकती। पीठ ने व्यक्ति को फैमिली कोर्ट के समक्ष भरण-पोषण याचिका दायर करने की तारीख से 4 हजार रुपये प्रति महीने महिला को भरण पोषण के रूप में भुगतान करने का निर्देश दिया। सुबोध\२७\०४\२०२५