अंग्रेजों के जमाने में जिस तरह से लाट साहब की भूमिका होती थी। वही भूमिका अब स्वतंत्र भारत में, जहां पर विपक्षी राजनीतिक दलों की सरकारें हैं। वहां पर राज्यपालों की भूमिका सरकार के बॉस की तरह हो गई है। राज्यपालों की नियुक्ति केंद्र सरकार करती है। जो राज्यपाल विपक्षी शासित राज्यों में नियुक्त किए गए हैं। उन्हें राजनीतिक एजेंडा को पूरा करने राज्यों में नियुक्त किया जाता है। चुनी हुई सरकार के कामकाज में तरह-तरह से अड़ंगा डालना, मुख्यमंत्री के समानांतर राज्यपाल शासन व्यवस्था में हस्तक्षेप कर, सरकार के काम में लगातार बाधा उत्पन्न करते हैं। यह बात पिछले कुछ वर्षों से देखने को मिल रही है। पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, आंध्र तेलंगाना, महाराष्ट्र इत्यादि राज्यों में जहाँ गैर भाजपाई सरकारें हैं। वहां के राज्यपालों की भूमिका विवादों में है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा है, राज्यपाल को तीन माह के अंदर राज्य विधानसभा से पारित बिलों में अनिवार्य रूप से मंजूरी देनी होगी। सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के पास भी लंबे समय तक बिल लंबित रहने के कारण एक माह की समय सीमा तय कर दी है। इसको लेकर देश में एक नया विवाद शुरू हो गया है। यहां उल्लेखनीय है, 9 साल पहले भाजपा के शासनकाल में गृह मंत्रालय द्वारा एक आदेश जारी किया गया था। विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपाल सलाहकार के बजाय राज्य सरकार के कार्य में बाधा डालने वाली मशीनरी के तौर पर काम करने के आरोप थे। ऐसी स्थिति में गृह मंत्रालय ने परिपत्र जारी कर 3 महीने के अंदर राज्यपालों को विधानसभा से पारित बिलों की अनुमति देने को अनिवार्य किया था। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला पहले भी इस मामले में संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत देशभर में लागू है। इसके बाद भी पिछले कुछ वर्षों से केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल और राज भवन जहां गैर भाजपाई सरकारे हैं। वहां के राज भवन भाजपा के राजनीतिक शक्ति केन्द्र के रूप में बदल गए हैं। राज्यपाल, शासक के रूप में भाजपा के कार्यक्रमों को राजभवन से संचालित करते हैं। राज्य सरकार द्वारा जो बिल पास किए जाते हैं। जिन मामलों में राजनैतिक विवाद की स्थिति बनती है। उसमें राज भवन सीधा हस्तक्षेप कर भाजपा को मदद करने का काम कर रहे हैं। इस तरह के आरोप लगातार कई राज्यों के राज्यपालों पर लग चुके हैं। राजनीति और शासन व्यवस्था में नैतिकता धीरे-धीरे खत्म हो गई है। नैतिकता तो अब न्यायपालिका में भी देखने को नहीं मिलती है। केंद्र सरकार के दबाव में संवैधानिक पद पर बैठे हुए लोग मनमाना निर्णय कर रहे हैं। जिसके कारण अजीब तरीके की स्थिति राज्यों में देखने को मिल रही है। न्यायपालिका के जजों की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा जाग गई है। जजों के निर्णय राजनीति से प्रभावित है, इस तरह के आरोप लग रहे हैं। पश्चिम बंगाल तमिलनाडु केरल इसके सबसे बड़े प्रमाण है। ऐसी स्थिति में राज्यपालों की भूमिका को लेकर सुप्रीम कोर्ट का जो आदेश आया है। उस आदेश में राष्ट्रपति के लिए भी एक माह की समय सीमा तय की गई है। इसको लेकर देश में वाद-विवाद की राजनीति हो गई है। उसमें न्यायपालिका भी निशाने पर आ गई है। यदि यही स्थिति रही तो आगे चलकर संवैधानिक संस्थाओं की जिम्मेदारी तय कर पाना न्यायपालिका के लिए भी संभव नहीं होगा। न्यायपालिका के ऊपर जिस तरीके का दबाव केंद्र सरकार तथा संवैधानिक पद पर बैठे लोगों द्वारा बनाया जा रहा है। हाल ही में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी इस विवाद की आग में घी डालने का काम किया है। उसको देखते हुए लगता है, अब मर्यादाएं भी खत्म होती जा रही हैं। सब अपने-अपने निजी लाभ को देखते हुए अपनी-अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। जिसके कारण संवैधानिक और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को लेकर लोगों के मन में अविश्वास पैदा हो रहा है। यह स्थिति देश के लिये ठीक नहीं है। संवैधानिक और शासन के महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए महानुभावों की जिम्मेदारी है। वह अपने कार्यों को नैतिकता के साथ संविधान की मूल भावना के अनुरूप जिम्मेदारी का निर्वाह करें। अन्यथा कभी भी स्थिति विष्फोटक हो सकती है। ईएमएस / 19 अप्रैल 25