न्यूयॉर्क (ईएमएस)। हाल ही में कम जानी-पहचानी बीमारी टाइप-5 डायबिटीज को लेकर चिकित्सा जगत में नई हलचल मच गई है। हाल ही में थाईलैंड के बैंकॉक में आयोजित इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन (आईडीएफ) की बैठक में इसे पहली बार औपचारिक रूप से टाइप-5 डायबिटीज नाम दिया गया। यह मधुमेह की एक अनोखी किस्म है, जो खासतौर पर कमजोर और कुपोषित युवाओं में पाई जाती है। इस बीमारी का पहली बार ज़िक्र 1955 में जमैका में हुआ था, जहां इसे जे-टाइप डायबिटीज कहा गया था। 1960 के दशक में भारत, पाकिस्तान और अफ्रीका जैसे देशों में कुपोषित किशोरों और युवाओं में इसके लक्षण देखे गए। 1985 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएच) ने इसे एक अलग प्रकार की डायबिटीज माना, लेकिन 1999 में शोध की कमी के कारण यह मान्यता वापस ले ली गई। अब, करीब सात दशक बाद, दुनिया फिर से इस बीमारी को गंभीरता से लेने लगी है। विशेषज्ञों का कहना है कि टाइप-5 डायबिटीज, टाइप-1 और टाइप-2 डायबिटीज से पूरी तरह अलग है। पहले माना जाता था कि यह बीमारी इंसुलिन रेजिस्टेंस के कारण होती है, लेकिन अब यह साफ हो चुका है कि इन मरीजों के शरीर में इंसुलिन बनता ही नहीं है। अमेरिका के न्यूयॉर्क स्थित अल्बर्ट आइंस्टीन कॉलेज ऑफ मेडिसिन की प्रोफेसर मेरीडिथ हॉकिंस के मुताबिक, यह खोज डायबिटीज को समझने के नजरिए को पूरी तरह बदल देती है। 2022 में प्रकाशित एक अध्ययन में डॉ. हॉकिंस और उनकी टीम ने यह साबित किया कि टाइप-5 डायबिटीज न तो टाइप-2 की तरह मोटापे से जुड़ी है और न ही टाइप-1 की तरह ऑटोइम्यून। इसके बावजूद, इस बीमारी के इलाज को लेकर चिकित्सा समुदाय अब भी स्पष्ट नहीं है, और कई मरीजों की मौत एक साल के भीतर ही हो जाती है। आईडीएफ ने अब एक विशेष टीम गठित की है, जो अगले दो वर्षों में इस बीमारी की पहचान के मापदंड और इलाज के दिशा-निर्देश तय करेगी। सुदामा/ईएमएस 19 अप्रैल 2025