सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समय सीमा तय की है। उस आदेश पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने नाराजगी जताई है। उन्होंने कहा है कि अदालत राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकती है। उपराष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत मिले सुप्रीम कोर्ट को विशेष अधिकार की गलत व्याख्या करते हुए कहा, लोकतांत्रिक शक्तियों के लिये यह अधिकार न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है। संविधान का अनुच्छेद 142 ,भारत के सुप्रीम कोर्ट को विशेष अधिकार देता है। पूर्ण न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट किसी भी मामले में कोई भी आदेश, निर्देश या फैसला दे सकता है। धनखड ने कहा लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार सर्वोच्च होती है। उन्होंने कहा, सभी संस्थाओं को अपनी-अपनी सीमाओं में रहकर काम करना चाहिए। उन्होंने कहा, कोई भी संस्था संविधान से ऊपर नहीं है। धनखड़ ने कहा राष्ट्रपति देश का सबसे सर्वोच्च पद है। संविधान के अनुच्छेद 145 (3) के तहत संविधान की व्याख्या का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास है। उनका आरोप है, सुप्रीम कोर्ट के जज सुपर संसद की तरह काम कर रहे हैं। संविधान की रक्षा और न्यायपालिका की सर्वोच्चता को बनाए रखने के लिए कार्यपालिका और विधायिका की तरह कोई अधिकार न्यायपालिका को संविधान ने नहीं दिए हैं। ब्रह्मा विष्णु महेश की तर्ज में सुप्रीम कोर्ट सर्वोपरि है। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करना विधायिका और कार्यपालिका के लिए अनिवार्य है। नागरिकों के मौलिक अधिकार और संघीय व्यवस्था को सुरक्षित बनाए रखने की जिम्मेदारी संविधान ने न्यायपालिका को दी है। न्यायपालिका जब भी कोई आदेश देती है] वह संविधान के प्रावधानों की समीक्षा करती है! समीक्षा करने के बाद वह निर्णय करती है। इसके पहले भी विधायिका द्वारा कई ऐसे कानून जो संविधान संवत नहीं थे। नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन था। संविधान की मूल भावना के अनुरूप नहीं थे। उन्हें समय - समय पर निरस्त किया है। राम मंदिर का जो फैसला आया, वह भी सुप्रीम कोर्ट ने तथ्यों के आधार पर न देकर विशेष अधिकार का उपयोग कर यह विवाद हमेशा के लिए समाप्त हो। इसको ध्यान में रखते हुए दिया है। संघीय व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते हुए राज्यपाल मनमानी कर रहे थे । राज्य की विधानसभाओं से पारित विधेयकों को मंजूरी नहीं दे रहे थे। राज्यपाल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों और आदेशों का पालन नहीं कर रहे थे। ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति और राज्यपाल को समय सीमा तय कर संविधान के अनुरूप निर्णय करने की समय -सीमा तय की है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करना राज्यपाल और राष्ट्रपति के साथ-साथ केंद्र सरकार के लिए भी आवश्यक है। भारत का राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करता है। राष्ट्रपति को संविधान ने कोई अलग से अधिकार नहीं दिए हैं। संविधान ने राष्ट्रपति को कुछ मामलों में ही विशेष अधिकार दिए हैं। जब केंद्र में किसी राजनीतिक दल को बहुमत प्राप्त न हो, सरकार बनाने के लिए राष्ट्रपति अपने विशेष अधिकारों का उपयोग करते हुए सरकार का गठन कर सकता है। उसके बाद उसे केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर ही काम करना होता है। संविधान में संविधानिक दायित्व निभाने का भार तीनों संस्थानों का है। विधायिका और कार्यपालिका के पास असीम शक्तियां हैं। न्यायपालिका के पास संविधान के अनुसार बने नियम कानून के अनुसार काम हो रहा है, या नहीं। इसकी समीक्षा कर आदेश देने की शक्तियां न्यायपालिका के पास हैं। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं। इसका मतलब यह नहीं होता है, वह जजों के मालिक बन गए हैं। उपराष्ट्रपति धनखड स्वयं वकील हैं। उपराष्ट्रपति के रूप में संवैधानिक संस्था में विराजमान है। राज्यसभा के सभापति हैं, यदि वह संविधान की गलत व्याख्या करेंगे, तो हंसी का पात्र बनेंगे। होना तो यह चाहिए था, उन्हें इस मामले में कोई बयान नहीं देना चाहिए। उन्होंने सार्वजनिक रूप से बयान देकर न्यायपालिका और अपने पद की गरिमा को घटाने का काम किया है। भारत में जिस तरीके की स्थिति देखने को मिल रही है। रोजाना नियम और कानून की धज्जियां स्वयं सरकारों द्वारा उड़ाई जा रही हैं। संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों का लगातार हनन हो रहा है। सरकार ने न्यायपालिका को पंगु बनाकर रख दिया है। न्यायाधीशों, चुनाव आयोग एवं अन्य संवैधानिक संस्थाओं में जिस तरीके से सरकार अवैधानिक और मनमानी नियुक्तियां कर रही हैं । संवैधानिक संस्थाएं, सरकार के दवाब में काम कर रही हैं। यदि इस समय भी न्यायपालिका चुप रह गई, तो भारत में संविधान नाम की कोई चीज नहीं होगी। जिनके पास अधिकार हैं वह अधिकार के बल पर तानाशाही करेंगे। रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है। समरथ को नहीं दोष गुसाईं, सरकार और कार्यपालिका के अधिकार हैं। जिनका वह दुरुपयोग करते हैं। न्यायपालिका अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं कर सकती है। न्यायपालिका संविधान के अनुरूप प्रत्येक मामले में अलग-अलग समीक्षा करके निर्णय करती है। उपराष्ट्रपति धनखड़ को ध्यान रखना होगा, इसी न्यायपालिका ने इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित किया था। आपातकाल में जो संशोधन किए गए थे। उन्हें असंवैधानिक मानकर न्यायपालिका ने निरस्त किया। उपराष्ट्रपति यदि न्यायपालिका के द्वारा दिए गए निर्णयों का अवलोकन करेंगे। उन्हें सैकड़ो ऐसे मामले मिलेंगे जहां न्यायपालिका ने विधायिका से पारित कानूनों को निरस्त किया है। उपराष्ट्रपति के संवैधानिक पद पर आसीन होने के बाद भी उन्होंने अपने पद की गरिमा नहीं रखी। धनखड़ पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में विवादित रहे हैं। वैसे ही विवादित उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति के रूप में हैं। ऐसी स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय को इस इस तरह के आदेश देने के लिए विवश होना पड़ रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने निश्चित रूप से अपने संवैधानिक दायित्व का पालन किया है। इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय की जितनी सराहना की जाए कम है। ईएमएस/18 अप्रैल2025