लेख
16-Apr-2025
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क्या अठहत्तर वर्षिय हमारा प्रजातंत्र अब इतना बुजुर्ग हो गया है कि उसे ‘अधिकार’ की लाठी टेककर चलना पड़ रहा है? यहीं नहीं उसे यह दिखाना भी पड़ रहा है कि उसके हाथ में लाठी है? वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है, वह तो अब समय ही ऐसा आ गया है, जब प्रजातंत्र को दिखावे के लिए यह सब करना पड़ रहा है, जरा सोचिये.... जब प्रजातंत्र का हर एक अंग एक-दूसरे के सामने अपने को ज्यादा ताकतवर दिखाने के लिए शक्ति प्रदर्शन करें तो फिर स्तंभों के सामने और कोई विकल्प ही क्या है? जब विधायिका अपने आपको खुदा मानने लगे, न्यायपालिका अपनी सर्वोच्चता प्रकट करें, कार्यपालिका की अहमियत खत्म होने लगे, तक बैचारे प्रजातंत्र की क्या स्थिति होगी और जहां अघोषित चैथे स्तंभ खबर पालिका का सवाल है, वह विक्रय की वस्तु बन जाए तो फिर प्रजातंत्र का रक्षक कौन? ऐसी स्थिति में तो उसकी ‘अकाल मृत्यु’ सुनिश्चित ही है, आज यही स्थिति है। भारत मंे आज यही परिदृष्य है, न्यायपालिका अपने आपको सर्वोच्च मान राष्ट्रपति जी को निर्देश दे रही है कि वे संसद द्वारा पारित विधेयकों पर तीन माह की समयावधि में अपना मन्तव्य स्पष्ट करें, उन्हें मंजूरी देनी है या नहीं? यह स्पष्ट करें और यदि किसी कारण से इस समयवधि से भी अधिक देरी होती है तो राष्ट्रपति को मंजूरी में देरी का लिखित में कारण बताना होगा। जहां तक हमने अभी तक पढ़ा है, सीखा है, वह यही है कि हमारे प्रजातंत्र की सर्वोच्च शख्सियत राष्ट्रपति होता है, वही सरकार का प्रमुख होता है, प्रधानमंत्री नहीं? फिर प्रजातंत्र की सर्वोच्च इस हस्ती को निर्देशित करने की यह हिम्मत न्यायपालिका ने कैसे जुटाई? इसी बीच देश की आजादी के बाद पहली बार विधानसभा में पारित हुए एक दर्जन विधेयकों को राज्यपाल की मंजूरी के बगैर तमिलनाडू सरकार ने अधिसूचित कर दिया, इससे राज्यपाल की मंजूरी के बगैर ये कानून के रूप में लागू हो गए। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो गया है कि हमारे प्रजातांत्रिक देश में भी स्वेच्छाचारिता का राज चल रहा है और ‘सत्तारूढ़’ वही सब करता है जो उसे करना है, उसे कोई भी कानून रोक नहीं पा रहा है.... अर्थात् शीर्ष से निम्न स्तर तक स्वेच्छाचारिता जारी है और कानून लाल बस्ते में सिसकियां ले रहा है। अब सवाल यह है कि क्या देश की सर्वोच्च अदालत को राष्ट्रपति के सामने इस तरह पेश होना चाहिए? सर्वोच्च न्यायालय यहीं तक सीमित नहीं रहा, उसने तो राष्ट्रपति को यहां तक कह दिया कि- ‘‘ राष्ट्रपति के पास पूर्ण वीटों का अधिकार नही है, इसलिए राष्ट्रपति के लिए तीन महीनें में विधेयकों पर फैसला लेना कानूनन अनिवार्य है’’, मतलब यह कि अब सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति जी के प्रति भी सख्त सीख अपनाने लगा है, आज स्वेच्छाचारिता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है? इसी तरह के प्रजातंत्र के दौर से आज देश गुजरने को मजबूर है। मतलब यह कि प्रजातंत्री देश में शायद पहली बार तमिलनाडू में बिना राज्यपाल की मंजूरी के दस विधेयकों ने कानूनी रूप धारण कर लिया। यह तो महज एक उदाहरण है, देश के विभिन्न राज्यों में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएगें जहां प्रजातंत्र का हर स्तंभ अपना शक्ति प्रदर्शन कर दूसरे स्तंभों से अपने आपको शक्तिशाली प्रदर्शित करता दिखाई देगा। अब किया क्या जाए? प्रजातंत्र की सबसे अहम् शख्सियत ‘प्रजा’ तो बैचारी ‘दर्शकदीर्घा’ में बैठा दी गई है, इतनी लम्बी अवधि में उसे उसकी शक्ति का अहसास तक नही होने दिया गया है, तो फिर देश में ऐसे ‘तमाशों’ के अलावा हो ही क्या सकता है? अब तो देश और प्रजा की यही परिणति है और यही आगे भी चलता रहेगा। हाय.... हमारा प्रजातंत्र.... और हम....। (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 16 अप्रैल /2025