लेख
16-Apr-2025
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में तीसरी बार केंद्र की सत्ता में लौटे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की छवि इस बार पहले जैसी ताकतवर नहीं रही। पहले दो कार्यकाल में भारतीय जनता पार्टी स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में थी। इस बार उसे सरकार बनाने के लिए सहयोगी दलों के ऊपर निर्भर रहना पड़ रहा है। यह गठबंधन के राजनीति की मजबूरी है। पिछले 11 साल में पहली बार मोदी-शाह की जोड़ी को सहयोगी दलों के बगावती तेवरों का सामना करना पड़ रहा है। बिहार और गुजरात में इसकी शुरुआत हो चुकी है। बिहार में पारस पासवान और मांझी ने बगावत का बिगुल बजा दिया है। वह इंडिया गठबंधन में शामिल हो गए हैं उनके भतीजे चिराग पासवान एनडीए के साथ हैं वक्फ बिल और दलित को लेकर जो नई राजनीतिक स्थिति जमीन पर देखने को मिल रही है। उसके बाद चाचा पारस ने एनडीए से पाला झाड़कर, इंडिया गठबंधन का पल्ला पकड़ लिया है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने मोदी और शाह के गृह प्रदेश गुजरात में भी सेंध लगा दी है। भाजपा के पूर्व ‎विधायक एवं महामंत्री महेश वसावा ने कांग्रेस का पल्ला गुजरात में थाम लिया है। राहुल गांधी बुधवार को गुजरात गए। वहां पर उन्होंने भाजपा के लिए नई चुनौती खड़ी कर दी है। आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की तेलगु देशम पार्टी हो या नीतीश कुमार की जनता दल (यू), दोनों ही पार्टियाँ अब गठबंधन में अपने वजूद और हिस्सेदारी को लेकर जरूरत से ज्यादा मुखर हैं। मंत्रिमंडल में उचित प्रतिनिधित्व, राज्यों की विशेष मांगें और नीति-निर्माण में अहमियत देने की माँग अब केवल दबे स्वर मे नहीं, बल्कि सार्वजनिक मंचों से एनडीए गठबंधन के सहयोगी दल उठाने लगे हैं। यह स्थिति दर्शाती है, भाजपा का पहले जैसा एकछत्र राज नहीं रहा। ‎बिहार के मुख्यमंत्री नी‎तिश कुमार की पार्टी जनता दल यू में भाजपा ने ‎जिस तरह से सेंध लगाई है उससे ‎बिहार में जनता दल का अ‎स्तित्व समाप्त होने जा रहा है। उड़ीसा वाला खेल भाजपा द्वारा ‎बिहार में खेला जा रहा है। इसकी जबरदस्त प्र‎ति‎क्रिया सहयोगी दलों में देखने को ‎मिल रही है। एनडीए गठबंधन के सहयोगी दलों में डर एवं भय देखने को ‎मिल रहा है। सहयोगी दल अब सत्ता में ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी के दावेदारी कर रहे हैं। एनडीए गठबंधन के भीतर असहमति के सुर खुलकर सामने आने लगे हैं। सहयोगी दलों में अब मोदी-शाह और ईडी, सीबीआई का भी डर नहीं रहा। सहयोगी दल अधिकारों की बात कर रहे हैं। सहयोगी दल अब ‘वन नेशन, वन पॉलिसी’ जैसी नीतियों पर केंद्र सरकार से पुनर्विचार करने का दबाव बना रहे हैं। वक्फ बिल को लेकर भी देश के कई राज्यों में स्थितियां बड़ी तेजी के साथ बदली हैं जिसके कारण छोटे क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व पर संकट खड़ा होता हुआ दिख रहा है। इस घटनाक्रम का एक सकारात्मक पक्ष भी है। लोकतंत्र की स्वस्थ प्रक्रिया के लिए यह दबाव जरूरी है। भाजपा और केंद्र सरकार में अभी जो एकाधिकार है। सहयोगी दल उपे‎क्षित महसूस कर रहे हैं। एनडीए में शामिल सभी सहयोगी दल अपनी बात खुलकर सामने रख रहे हैं। अगर इनकी अनदेखी की गई, तो यह बगावत का कारण बन सकता है। जो केंद्र सरकार की स्थिरता को प्रभावित कर सकती है। भाजपा को बदली हुई परिस्थितियों में गठबंधन धर्म का पालन करते हुए संवाद की नीति सहयोगी दलों के साथ अपनाना होगी। केंद्र सरकार और भाजपा को सभी साझेदारों को सम्मान और उनकी मांग को प्राथमिकता देना होगी।तभी मज़बूत गठबंधन कायम रह पाएगा। जिस तरह की चुनौती वर्तमान में केंद्र सरकार को मिल रही है।उसमे बढता आर्थिक संकट ,महंगाई, बेरोजगारी, सामाजिक एवं राजनीतिक समीकरण बड़ी तेजी के साथ देश मे बदल रहे हैं। सहयोगी दलों के बगावती स्वर केवल असहमति नहीं,बल्कि भाजपा के लिए एक चेतावनी भी हैं। लोकतंत्र में सत्ता साझा करना स्थायित्व की कुंजी है। सहयोगी दलों को ऐसा लगता है आगे चुनाव जीतना या चुनौतियों का मुकाबला भाजपा के लिए मुश्किल होगा। ऐसी स्थिति में सहयोगी दल अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए पाला बदलने में देर नहीं करेंगे अभी तक गठबंधन का यही हश्र देखने को मिला है। समय रहते हुए मोदी-शाह की जोड़ी को इस दिशा में ध्यान देने की जरूरत है। मोदी-शाह की पकड़ शनै: शनै: कमजोर होती जा रही है। एसजे/ 16 अप्रैल /2025