ज़रा हटके
16-Apr-2025
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टोक्यो (ईएमएस)। हाल ही में एक जापानी अध्ययन में दावा किया गया है कि बहुत पहले हमारे महासागर हरे रंग के हुआ करते थे। इस शोध के अनुसार, यह रंग परिवर्तन पानी की रासायनिक संरचना, उसमें मौजूद लोहा और शुरुआती जीवन के विकास से जुड़ा हुआ है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह वह दौर था जब पृथ्वी पर एककोशिकीय जीव ही अस्तित्व में थे और वातावरण में ऑक्सीजन लगभग न के बराबर थी। भूविज्ञान में पढ़े जाने वाले बैंडेड आयरन फॉर्मेशन नामक चट्टानों के निर्माण का समय भी यही था लगभग 3.8 से 1.8 अरब वर्ष पहले। उस समय बारिश की वजह से महाद्वीपीय चट्टानों से लोहा घुलकर नदियों के माध्यम से महासागरों में पहुंचता था। समुद्र के तल में सक्रिय ज्वालामुखी भी लोहे का बड़ा स्रोत थे। इसी समय प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया शुरू हुई, जिसमें जीव सूर्य की रोशनी से ऊर्जा बनाने लगे। आरंभ में यह प्रक्रिया ऑक्सीजन के बिना होती थी, लेकिन बाद में इससे ऑक्सीजन बनने लगी। यह ऑक्सीजन समुद्र में मौजूद घुले हुए लोहे से प्रतिक्रिया कर उसे ऑक्सीकृत करने लगी, जिससे पानी का रंग धीरे-धीरे हरा हो गया। जापान के पास इवो जीमा द्वीप के निकट वैज्ञानिकों ने आज भी समुद्री जल में हरे रंग की झलक देखी है। यहां पानी में एफई3प्लस (ऑक्सीकृत लोहा) की मौजूदगी के साथ-साथ नीले-हरे रंग के शैवाल भी पाए गए हैं। ये शैवाल दरअसल उन्हीं पुराने बैक्टीरिया के वंशज हैं जो लोहे की मदद से प्रकाश संश्लेषण करते थे। अध्ययन में यह भी पता चला कि अगर इन शैवालों में आनुवंशिक बदलाव करके ‘पीईबी’ नामक पिग्मेंट डाला जाए, तो ये हरे पानी में और तेजी से विकसित होते हैं। कंप्यूटर सिमुलेशन से यह भी सामने आया कि जैसे-जैसे समुद्र में सारा लोहा ऑक्सीकरण के कारण खत्म हुआ, वैसे-वैसे वातावरण में मुक्त ऑक्सीजन बनने लगी जो आज के जीवन के लिए अनिवार्य है। यह शोध इस बात की याद दिलाता है कि पृथ्वी पर कुछ भी स्थायी नहीं होता न रंग, न रसायन, और न ही जीवन के स्वरूप। सुदामा/ईएमएस 16 अप्रैल 2025