लेख
16-Apr-2025
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हमारी भारतीय प्राचीन संस्कृति में पाद-प्रक्षालन की परम्परा आदिकाल से एक धार्मिक एवं उच्च सम्मान प्रदान करने हेतु चली आ रही है। पाद-प्रक्षालन किये जाने वाले व्यक्ति के प्रति श्रद्धा-प्रेम-प्रतिष्ठा का प्रतीक है। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने बाल सखा सुदामा के आगमन का समाचार सुनकर स्वयं नंगे पैर दौड़कर अपने महल में सुदामा को सिंहासन पर बैठाकर उनके पाद प्रक्षालन किये। ऐसा उदाहरण किसी अन्य धर्म या संस्कृति में शायद ही हो। सुदामा चरित में कवि नरोत्तमदास ने उसका मार्मिक वर्णन इस प्रकार किया है- ऐसे बेहाल बेवाइन सौं पग, कंटक जाल लगे पुनि जोये।हाय महादुःख पायो सखा तुम, आये इ नैन कितै दिन खोये।।देखि सुदामा की दीन दसा, करुणा करिक के करुणानिधि रोये। पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल से पग धोये।। पाद प्रक्षालन श्रीरामचरितमानस में यत्र-तत्र-सर्वत्र ऋषि-मुनियों-ब्राह्मणों के आगमन एवं भोजन के पूर्व राजाओं द्वारा किया गया है। उदाहरणार्थ राजा प्रतापभानु ने ब्राह्मणों को भोजन के निमंत्रण के पूर्व उनके चरण धोये- भोजन कहुँ सब विप्र बोलाए। पद परवारि सादर बैठाए।। -श्रीरामचरितमानस बाल का.172.2 महामुनि विश्वामित्रजी के आगमन पर राजा दशरथजी ने ऋषि ही नहीं उनके साथ के ब्राह्मणों को दण्डवत कर जो सम्मान किया है वह एक भारतीय समाज में अतिथि सेवा का अनुपम उदाहरण है- चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहीं दूजा।। बिबिध भाँति भोजन करवाया। मुनिबर हृदयँहरष अति पावा।। -श्रीरामचरितमानस बाल का. 206.2 श्रीराम के विवाह के अवसर पर राजा जनक अवधपति दशरथजी ही नहीं उनके साथ आये समस्त ब्राह्मण ऋषि एवं श्रीराम सहित तीनों भाइयों के अपने हाथों से पाद-प्रक्षालन किया है- सादर सब के पाय पखारे। जथाजोगु पीढन्ह बैठाए।। धाए जनक अवधपति चरना। सीलु स्नेह जाई नहिं बरना।। बहुरि राम पद पंकज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए।। तीनिक भाई राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी।। -श्रीरामचरितमानस बाल का. 327.2.3 श्रीराम के विवाह उपरान्त गुरु-ब्राह्मणों के सहित आगमन पर राजा दशरथ ने उनका पाद-प्रशालन कर स्वागत किया। यह हमारी संस्कृति का श्रेष्ठ उदाहरण है यथा- जो बसिष्ट अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही।। भुसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठी भाग्य बड़़ जानी।। पास परवारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए।। आदर दान प्रेम परितोपे । देत असीस चले मन तोषे।। -श्रीरामचरितमानस बाल. का. 351.2 वशिष्ठजी ने जो आज्ञा दी, उसे लोक और वेद विधि के अनुसार राजा दशरथ ने आदर पूर्वक किया। ब्राह्मणों की भीड़ देखकर अपना बड़ा भाग्य जानकर सब रानियाँ आदर के साथ उठी। उन्होंने उनके चरणों को धोकर सबको स्नान कराया और राजा ने भलीभाँति पूजन करके उन्हें भोजन कराया। ऋषि-मुनि-ब्राह्मण आदर दान और प्रेम से पुष्ट होकर, सन्तुष्ट मन से आशीर्वाद देकर चले गये। पाद-प्रक्षालन मात्र अतिथि का स्वागत के साथ-साथ स्वास्थ्य वर्धक भी है। महर्षि सुश्रुत के अनुसार-‘‘पाद-प्रक्षालन पादमल रोगश्रृमोपहम्-चक्षुः प्रसादेनं वृष्यं रक्षोघ्न प्रीति वर्द्धनम्। इसका अर्थ है कि पैर धाने से पैरों का मैल, पैरों के रोग तथा थकावट समाप्त हो जाती है। नेत्रों को आनन्द प्राप्त होता है, शक्ति प्राप्त होती है। प्रीति (प्रेम) उत्पन्न होता है। इस प्रकार भोजन पूर्व पाद प्रक्षालन श्रद्धा, सम्मान, विश्वास के साथ पैर धोने वाले का पाद-प्रक्षालन सम्मुख अतिथि के करनेे के उपरान्त स्वयं भी पाद प्रक्षालन कर भोजन करना चाहिये। पाद प्रक्षालन से सकारात्मक ऊर्जा दोनो को प्राप्त होती है। श्रीरामचरितमानस में शबरी द्वारा श्रीराम एवं लक्ष्मण का पाद-प्रक्षालन का उदाहरण भारतीय संस्कृति का श्रेष्ठ उदाहरण है- प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि-पुनि पद सरोजु सिर नावा।। सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुन्दर आसन बैठारे।। -श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड 33.5 शबरी प्रेम में मग्न हो गई, मुख से वचन नहीं निकला है। बार-बार श्रीराम के चरण कमलों में सिर नवा रही है। फिर शबरी ने जल लेकर आदर पूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोये और फिर उन्हें सुन्दर आसनों पर बैठाया। आज भी हिन्दू विवाह संस्कारों में विवाह के अवसर पर कन्या (वधू) पक्ष द्वारा वर (दामाद) एवं वर पक्ष द्वारा वधू (कन्या) का पाद-प्रक्षालन किया जाता है। वर को श्री विष्णु स्वरूप एवं वधू को श्रीलक्ष्मीजी मानकर सम्मान किया जाता है। मनुष्य के पांव के अंगूठे में विद्युत सम्प्रेक्षणीय ऊर्जा का वास होता है। यही कारण है कि हम वृद्धजनों, साधु-सन्तों, ब्राह्मणों के चरण स्पर्श करते हैं तथा इनके आशीर्वाद से हमारी नकारात्मकता समाप्त हो जाती है। इस कार्य से भविष्य में दुःख एवं कष्ट आते नहीं है। जीवन सुख-शांति एवं उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होने लगता है। हमें अपनी प्राचीन गौरवमयी संस्कृति के पाद-प्रक्षालन की इस परम्परा को विरासत मानकर सुरक्षित रखना चाहिये तथा विदेशी संस्कृति की चकाचैंध से प्रभावित नहीं होना चाहिये। (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 16 अप्रैल /2025