हर दिन के उजाले में हम जीवन का उत्सव मनाते हैं, पर हमें यह अहसास तक नहीं कि मृत्यु अब हमारी परछाई से भी तेज़ रफ्तार से हमारे करीब आ रही है। महाराष्ट्र के धाराशिव में मंच पर अचानक गिरी वर्षा खरात की मौत कोई अकेली घटना नहीं है, यह उस अदृश्य महामारी की गूंज है जो कोविड के बाद हमारे समाज में मौन पांव पसार रही है। सड़कों पर चलते, खेलते, नाचते, बोलते — हम जिन्दगी के सामान्य क्षणों को जीते हुए जैसे मौत से एक अनदेखा समझौता कर बैठे हैं। विडंबना यह है कि एक असामान्य परिस्थिति को भी हम सामान्य मानने लगे हैं। कोरोना वायरस ने केवल शरीर पर वार नहीं किया, उसने समाज की मानसिकता और सरकार की प्राथमिकताओं पर भी गहरा घाव किया है। कोरोना के बाद की यह अचानक गिरने, धड़कन थम जाने वाली घटनाएँ वास्तव में पोस्ट कोविड सिंड्रोम का विकराल चेहरा हैं। मेडिकल साइंस के अनुसार, कोविड के संक्रमण ने शरीर के अंदर सूक्ष्म रक्त वाहिनियों में थक्के बनाने की प्रवृत्ति को बढ़ा दिया। यह स्थिति कई बार बिना किसी पूर्व लक्षण के जानलेवा साबित हो रही है। हार्ट अटैक, कार्डियक अरेस्ट, माइक्रोथ्रोम्बस, ब्रेन स्ट्रोक — ये सब एकदम से हमला कर रहे हैं और अक्सर इतने तेजी से कि चिकित्सा सहायता भी समय पर नहीं पहुंच पा रही। भारत में कोविड के बाद कार्डियक मौतों में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के आंकड़े बताते हैं कि 2020 से 2024 के बीच अचानक कार्डियक अरेस्ट के मामलों में 28 प्रतिशत तक इजाफा हुआ है। 30 वर्ष से कम उम्र के युवाओं में यह वृद्धि 15 प्रतिशत के करीब है। लेकिन यह आंकड़े अखबार के किसी कोने में दबे रह जाते हैं, उन पर न तो नीतिगत बहस होती है, न ही कोई राष्ट्रीय आपात चेतावनी जारी होती है। आख़िर क्यों? हकीकत यह है कि सरकार और प्रशासन महामारी के बाद इस स्वास्थ्य आपातकाल को लेकर उतने सतर्क नहीं हैं, जितनी गंभीरता की आवश्यकता है। सार्वजनिक स्थलों पर इमरजेंसी मेडिकल सुविधाओं का अभाव, प्रशिक्षित मेडिकल स्टाफ की कमी, और तत्काल जीवनरक्षक उपकरणों स्वचालित बाह्य डिफिब्रिलेटर (एईडी मशीनों) की अनुपलब्धता हमारी व्यवस्था की ढुलमुल मानसिकता का प्रमाण हैं। किसी समारोह, कॉलेज फंक्शन या सार्वजनिक कार्यक्रम में सुरक्षा का मतलब केवल भगदड़ रोकने तक सीमित कर दिया गया है, स्वास्थ्य संबंधी आकस्मिकताओं के लिए तैयारियां अब भी हास्यास्पद रूप से अपर्याप्त हैं, और समस्या केवल चिकित्सा व्यवस्था तक सीमित नहीं है। हमारे समाज की सामूहिक चेतना पर भी प्रश्नचिन्ह है। महामारी के बाद लोग जैसे स्वास्थ्य को लेकर उदासीन हो गए हैं। अनियंत्रित खानपान, बढ़ता मानसिक तनाव, जीवनशैली में असंतुलन शरीर को अंदर से खोखला कर रहे हैं। अफसोस यह है कि स्वास्थ्य जांच, जो जीवन रक्षक सिद्ध हो सकती है, उसे हम आज भी या तो अनावश्यक खर्च समझते हैं या टालते रहते हैं। मीडिया, जो समाज का चौथा स्तंभ कहलाता है, वह भी इन खबरों को मात्र सनसनी बनाकर छोड़ देता है। वीडियो वायरल होते हैं, चंद घंटों तक चर्चा होती है, फिर सबकुछ भुला दिया जाता है। सवाल यह है कि क्या हमारी संवेदना इतनी कमजोर हो गई है कि एक युवा लड़की का मंच पर गिरकर मर जाना भी केवल एक वायरल क्लिप बन कर रह जाए? ऐसे में समय आ गया है कि हम सामूहिक जागरूकता का अभियान छेड़ें। सरकार को चाहिए कि वह कोविड पश्चात स्वास्थ्य प्रभावों पर राष्ट्रीय स्तर पर शोध प्रकल्प आरंभ करे और उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक करे। स्कूलों, कॉलेजों, दफ्तरों, और सार्वजनिक स्थलों पर इमरजेंसी मेडिकल किट और प्रशिक्षित कर्मियों की अनिवार्यता हो। हर व्यक्ति के लिए वार्षिक स्वास्थ्य जांच को प्राथमिकता दी जाए, खासकर हृदय और रक्त प्रवाह से जुड़ी बीमारियों की जांच। यह केवल एक स्वास्थ्य का मामला नहीं है, यह समाज की नैतिक जिम्मेदारी भी है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि हम एक ऐसी साइलेंट महामारी के बीच जी रहे हैं, जिसे अगर हमने गंभीरता से नहीं लिया, तो हर दिन किसी मंच से, किसी सड़क पर, किसी दफ्तर में — जीवन का यह दीपक यूं ही बुझता रहेगा। मौत अब अप्रत्याशित नहीं रही, वह हमारे दरवाज़े पर दस्तक दे रही है। फर्क बस इतना है कि हम उसकी आहट को सुनना चाहें या अनसुना कर दें। यह चुनाव हमारा है, लेकिन याद रखिए — यह चूक केवल हमारी नहीं, पूरे समाज की कीमत पर भारी पड़ेगी। ईएमएस / 15 अप्रैल 2025