लेख
15-Apr-2025
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भारतीय संस्कृति में पिता परिवार की धुरी होता है। उसका स्थान सर्वोपरि है। पांडव वनवास के समय जंगल में घूम रहे थे। वे प्यास से व्याकुल होने के कारण जलाशय, ढूँढ रहे थे। उन्हें एक स्थान पर जलाशय मिला। सर्वप्रथम सहदेव जलाशय पर पहुँचा। उसने हाथ में जल लेकर पीने का प्रयत्न किया। सहसा एक अदृश्य आवाज ने सहदेव से कहा कि मेरे प्रश्नों के उत्तर देकर ही जल ग्रहण करो। परन्तु सहदेव ने जल पी लिया और वह अचेत हो गया। उसके बाद नकुल, अर्जुन तथा भीम की भी वही स्थिति हुई। अंत में धर्मराज युध्ष्ठििर आये। अपने चारों भाईयों की मृतप्राय अवस्था देखकर उन्हें शंका हुई। वे भी जलाशय के पास पहुँचे। अदृश्य आवाज से उन्होंने परिचय पूछा। वह एक यक्ष की आवाज थी। उसने युधिष्ठिर से अठारह प्रश्न पूछे। सही उत्तर प्राप्त होने पर चारों भाई जीवित हो गये। उन प्रश्नों में एक प्रश्न था कि आकाश से ऊँचा कौन है? युधिष्ठिर ने तपाक से उत्तर दिया, ’’पिता”। वास्तव में सर्वोच्च स्थान पिता को ही प्राप्त है। पिता बालक को उसकी जीवन यात्रा में सही दिशा प्रदान करते हैं। उसे स्वअनुशासित जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करते हैं। वह चाहते हैं कि उनका पुत्र उद्दंड न बने। सही रास्ता अपनाकर जीवन में उत्तरोत्तर ऊँचाइयों को प्राप्त कर पिता का नाम रोशन करे। पिता की अभिलाषा रहती है कि उनकी सन्तान बलिष्ठ बनें, किसी के सामने झुके नहीं और प्रत्येक समस्या का निदान निडर होकर करे। पिता सर्वदा हर क्षण कदम - कदम पर आने वाली समस्याओं के प्रति सचेत करते रहते हैं। एक सफल पिता की यह हार्दिक अभिलाषा रहती है कि जो कष्ट उन्होंने स्वयं उठाए हैं वह उनकी संतान को न उठाने पड़े। पिता चाहते हैं कि उनकी सन्तान जीवन में किसी से धोखा न खाये और समस्याओं का निदान निपुणता से बिना झुंझलाहट के कर ले‘। संस्कृत साहित्य के किसी विद्वान् कवि ने कहा है: - जननी जन्मभूमिश्च जाह्नवी च जनार्दनः। जनकः पंचमश्चैव जकाराः पंच दुर्लभाः।। अर्थात् ये पाँच ‘‘ज कार’’ इस संसार में दुर्लभ है। जननी (माता), जन्मभूमि (स्वदेश) जाह्नवी (गंगा नदी), जनार्दन (भगवान श्रीकृष्ण) तथा जनकः (पिता) इन पाचों का सुख संसार में भाग्यशाली व्यक्ति को ही प्राप्त होता है। भगवान विष्णु के साक्षात् अवतार श्रीराम को माता कैकेयी के हठ के कारण पिता दशरथ जी वन को भेजते हैं तो भगवान श्रीराम धीर - गंभीर होकर सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। जननी कौसल्या से वन गमन की आज्ञा माँगने जाते हैं। माता कौसल्या के हृृदय की विशालता देखिये - सरल सुभाउ राम महतारी। बोली वचन धीर धरि भारी।। तात जाउँ बलि कीन्हेउ नीका। पितु आयसु सव धरमक टीका।। श्रीरामचरितमानस, अयो. दो. 54 चै. 4 अर्थात् सरल स्वभाव वाली श्रीरामचन्द्रजी की माता बड़ा धीरज धरकर वचन बोलीं - हे तात! मैं बलिहारी जाती हूँ , तुमने अच्छा किया। पिता की आज्ञा का पालन करना ही सब धर्मों का शिरोमणि धर्म है। पिता का स्नेह केवल पुत्र पर ही नहीं पुत्री पर भी उतना ही रहता है। मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार पिता अपनी पुत्री पर अधिक स्नेह करते हैं। माँ यदि अपनी बेटी को यदा - कदा डाँटती है, दुनिया की ऊँच - नीच के बारे में उसे कुछ समझाती है तो पिता माँ को एक झिड़की देकर टोक देता है और कहते हैं कि समय आने पर, जिम्मेदारी सिर पर पड़ने पर मेरी लाड़ली सब कुछ कर लेगी। वह तुमसे भी अच्छी बनेगी। बचपन में मैंने किसी पत्रिका में एक कहानी पढ़ी थी। सुज्ञ पाठकगण। उसका रसास्वादन करें। माता - पिता अपनी लाड़ली के लिए वर तलाश रहे थे। प्रत्येक लड़के में कुछ न कुछ मीन - मेख निकाली जा रही थी। पिता का कथन था कि मैं अपनी बेटी के लिए ऐसा राजकुमार सा वर ढूँढना चाहता हूँ जो मेरी लाड़ली को राजरानी बनाकर रखे और उसे किसी भी प्रकार की कमी न होने दे। मेरी बेटी उसके साथ हमेशा हँसती खिलखिलाती रहे आदि - आदि। बेटी ने पिता के कन्धे पर हाथ रख कर पूछा - पिता जी मेरे नाना जी ने भी आप में ऐसा ही राजकुमार ढूँढा होगा, फिर आप माँ को क्यों हमेशा उलहना देकर रूलाते रहते हो ऐसी होती है एक पिता की पुत्री के प्रति स्नेहासक्ति। ससुराल में भी बेटी की बिदाई के समय आशीर्वाद स्वरूप पिता का सिर पर रखा हाथ सर्वदा स्मरण रहता है। पुत्री पिता के सुख - दुःख का सहारा बनना चाहती है, पर वह अपने बाल - बच्चों की व्यस्तता में पिता को याद तो कर ही लेती है। आधुनिक एकल परिवार तथा व्यस्त जीवन शैली ने हमारे संवेदनात्मक मानवीय रिश्तों को समाप्त सा कर दिया है। लिखित पत्रों के माध्यम से भी दूरी बन गई है। केवल फोन तथा व्हाट्सएप पर ही सुख - दुःख के समाचार भेजकर तथा पढ़कर आत्मीयता व्यक्त कर दी जाती है और इसी में सुखानुभूति कर ली जाती है। सब की अपनी - अपनी विवशता है। पुत्र हो या पुत्री पिता परिवार का संबल है और उसका वर्चस्व सर्वोपरि है। आज भी पिता का स्थान परिवार में केन्द्र बिन्दु का है। (यह ले‎खिका के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 15 अप्रैल /2025