लेख
15-Apr-2025
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भारतीय संस्कृति में सभी धर्मशास्त्रकारों ने, ‘‘अभिवादनशीलता’’ को महान् धर्म और सदाचार का प्रमुख लक्षण बतलाया है। महाराज मनु ने अपनी स्मृति के प्रारम्भ में ही अभिवादनशील व्यक्ति को दीर्घायु, सद्विद्या, उत्तम यश और महान् बल पराक्र्रम की सहज ही प्राप्ति बतलायी है। मूलतः महर्षि मार्कण्डेयजी अभिवादनशीलता के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। उनमें विनय, नम्रता,शिष्टाचार, मर्यादा रक्षण, अभिवादनशीलता श्रेष्ठजन, वृद्धों तथा गुरूजन के प्रति आदर - बुद्धि, सेवाभाव आदि सद्गुणों का भण्डार भरा था, एवं नित्य विप्रों के अभिवादन करने से जो उन्हें आशीर्वाद प्राप्त हुआ, उसी से वे कालजयी महात्मा हुए तथा सदा - सदा के लिए अजर - अमर हो गये। अपने इस धर्माचरण से ऋषि मार्कण्डेयजी ने संसार में यह सन्देश दिया है कि ‘‘ अपने माता - पिता, गुरू तथा श्रेष्ठजन को सदा प्रणाम करना चाहिये और विनीत भाव से सदा उनका अभिवादन करना चाहिये। इससे दीर्घायु प्राप्त होती है और जीवन सफल हो जाता है।’’इस बात के प्रमाणीकरण में पुराणों में एक कथा प्रसिद्ध है ऐसा वर्णन है कि जब मार्कण्डेय पांच वर्ष के थे, एक दिन वे अपने पिता महर्षि मृकण्डुजी की गोद में खेल रहे थे, उसी समय संयोग से एक महाज्ञानी मर्मज्ञ वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने उस बालक के विशिष्ट लक्षणों को देखकर महर्षि मृकण्डु से कहा ‘‘मुने! आपका यह बालक कोई सामान्य बालक नहीं है, यह दैवीगुणों से सम्पन्न है और इससे संसार का महान कल्याण होने वाला है। इसके शरीर में जो शुभ लक्षण हैं, ऐसे लक्षण किसी में हो तो वह अजर - अमर होता है, किन्तु इस बालक में एक विशेष लक्षण हैं , जिससे सूचित होता है कि आज के दिन से छः महीने होते ही वह मृत्यु को प्राप्त होगा। अतः आप आज, अब से ही इसके दीर्घ जीवन हेतु कार्य करें तथा इतना कह कर वे सिद्ध महात्मा चले गये। महात्माओं की भविष्यवाणी कभी भी मिथ्या नहीं होती है यह सोचकर महर्षि मृकण्डुजी ने मृत्यु टालने हेतु समय के पूर्व ही बालक का यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया और कहा बेटा! तुम जिस किसी भी ब्राह्मण को देखना तब विनयपूर्वक प्रणाम करना। यं कंचिद्धीक्षसे पुत्र भ्रममाणं द्विजोत्तमम्। तस्यावश्यं त्वयां कार्य विनयादभिवादनम्।। ऐसा निर्देश देकर मृकण्डुजी निश्चिंत हो गये क्योंकि वे ब्राह्मणों के आशीर्वाद की शक्ति व महत्ता से भलीभाँति परिचित थे। मार्कण्डेयजी पिता की आज्ञा मानकर अभिवादन व्रत में लग गये। जो भी श्रेष्ठ जन दिखते, मार्कण्डेयजी बड़े ही भक्ति एवं विनयपूर्वक उन्हें प्रणाम करते। इस प्रकार छः महीने बीतने में केवल 3 दिन शेष रह गये। इसी बीच तीर्थयात्रापरायण सप्तर्षिगण उधर आ निकले, वहाँ वटुवेष में मार्कण्डेयजी खड़े थे। उनका दर्शन कर मार्कण्डेयजी को बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने श्रद्धा भक्तिपूर्वक बड़े ही विनीत भाव से बारी - बारी सभी महर्षियों को प्रणाम किया और सबने पृथक - पृथक दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया। महर्षि वसिष्ठजी ने उस बालक की ओर जब ध्यान से देखा तो वे समझ गये और सप्तर्षियों से कहने लगे, अरे! यह महान् आश्चर्य है जो हम लोगों ने इस बालक का ‘दीर्घायु’ होने का आशीर्वाद दे दिया क्योंकि इस बालक की तो केवल 3 दिन की ही आयु शेष रह गई है, अतः अब कोई ऐसा उपाय करना चाहिये, जिससे हम लोगों का आशीर्वाद झूठा सिद्ध न हो। हम भी जानते हैं कि विधाता का विधान भी असत्य नहीं हो सकता। अतः इस बालक के चिरंजीवी होने की कोई युक्ति निकालनी चाहिये। सप्तर्षिगण ने परस्पर विचार कर यह निश्चय किया कि ब्रह्माजी को छोड़कर दूसरा कोई भी इस समस्या को हल नहीं कर सकता। अतः इस बालक को उनके आगे ले जाकर उन्हीं की आज्ञा से इसे चिरंजीवी बनाना चाहिये। ऐसा निर्णय करके तीर्थभ्रमण का कार्य रोककर उस ब्रह्मचारी को साथ ले वे शीघ्र ही ब्रह्म्लोक में जा पहुँचे। वहाँ ब्रह्माजी को प्रणाम करके वेदोक्त स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति करने पश्चात् सब मुनि बैठे। इसके बाद उस बालक ने भी ब्रह्माजी को प्रणाम किया, और ब्रह्माजी ने भी उसे दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात् ब्रह्माजी ने सप्तर्षियों से पूछा - आप लोग कहाँ से और किसलिए इस समय यहाँ आये हो और यह उत्तम व्रत धारण करने वाला बालक कौन है? सप्तर्षियों ने आने का प्रयोजन और उस बालक के सम्बन्ध में सारी घटना बताकर कहा कि प्रभु! आपने भी इस बालक को यशस्वी, विद्वान तथा दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया है। अतः अब आप और हम सब सत्यवादी बने रहें। हमारी बात झूठी न होने पाये, ऐसा कोई उपाय करें। उनकी बात सुनकर ब्रह्माजी मुस्करा उठे और कहने लगे - ‘मुनिवरों! आप लोग चिन्तित न हो। इस बालक ने अपने विनय और अभिवादन के बल पर काल को भी जीत लिया है। तब ब्रह्माजी ने विचार कर अपनी विशिष्ट शक्ति से मार्कण्डेय जी को अजर - अमर तथा जरामुक्त होने का वर प्रदान किया। ब्रह्माजी ने मार्कण्डेयजी को उनके माता - पिता के आश्रम में भेजने को कहा। सप्तर्षिगण बालक को उसके माता - पिता के आश्रम में छोड़कर तीर्थ यात्रा पर निकल गये। मार्कण्डेयजी ने सारी कथा अपने माता - पिता को बता दी तथा कहा कि अभिवादन, विनय नम्रता, शिष्टाचार, मर्यादा रक्षण से दीर्घजीवन होने का आशीर्वाद प्राप्त होता है। अभिवादन में अमीर - गरीब छोटे - बड़े का कोई भेद नहीं करना चाहिए क्योंकि अभिवादनकर्ता को इसका आनन्द - सुख उसे सदा मिलता ही है। एक प्रसंग है कि एक कम्पनी का सबसे बड़ा अधिकारी प्रतिदिन कम्पनी में आने एवं जाने पर हँसता हुआ सबको गुड बाय करता था। एक दिन कार्यालय के बन्द होने के समय लिफ्टमैन को वह अधिकारी दिखाई नहीं दिया तो उस लिफ्टमैन को चिन्ता हुई तथा वह कम्पनी के तलघर में उस अधिकारी को ढूँढने गया। वहाँ उसे वह अधिकारी अपने काम में व्यस्त दिखा तथा कार्यालय बन्द होने के समय का ज्ञान उसे न रहा। लिफ्टमैन ने उसे कहा कि सर! कार्यालय पूरा बन्द हो चुका है, आप अन्तिम व्यक्ति हैं जो कि लिफ्ट से ऊपर न आये। मुझे आपके गुड बाय की याद आयी तथा मैं यहाँ आ पहुँचा। यदि आपके गुड बाय की याद न होती तो लिफ्ट तथा पूरा कार्यालय बन्द कर घर चला जाता इस प्रकार उस अधिकारी को गुडबाय के अभिवादन ने उसे कार्यालय में बन्द होने से बचाया। यही बात श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने मानव जीवन में दीर्घायु -यशस्वी होने के लिए बाल्यावस्था में इसे अनुकरण करने को तथा श्रीरामजी के जीवन से प्रेरणा प्राप्त करने को कहा है। प्रातःकाल उठि के रघुनाथा। मातु पिता गुरू नावहिं माथा।। (मानसश्री मानस शिरोमणि,एवं विद्यावाचस्पति) (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 15 अप्रैल /2025