आज समीक्षकों में इस बात पर अपनी-अपनी मानसिकता और विचार के आधार पर टिप्पणी करने की होड़ लगी है कि नीतीश कुमार और चन्द्रबाबू नायडु ने अपनी मान्य विचारधारा से परे जाकर वक्फ बिल का समर्थन क्यों किया? यह भी अपनी-अपनी समझ के आधार पर समझाने का प्रयास किया जा रहा है कि आखिर वक्फ बिल से किसको क्या मिला? जबकि एक बात का उल्लेख कोई नहीं कर रहा है कि नायडु और नीतीश ने बिल के स्वरूप को बदलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसमें लोजपा के चिराग पासवान की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता है। इसके बाद भी इन सभी नेताओं ने देश पर काबिज मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति को तौबा करने का मानस बना लिया है। अभी समीक्षकों को यह मानने में समय लगेगा कि देश मुस्लिम प्रधानता वाली राजनीति से बहुसंख्यकवाद की राजनीति की ओर तेजी से बढ़ रहा है। मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति ने देश को बंटवारे जैसे या गृहयुद्ध जैसे हालातों की ओर देश को धकेला है। और जब मुर्शिदाबाद जैसे मुस्लिम बाहुल्य वाले जिलों से वक्फ समर्थकों पर हमले की बात सामने आती है तब और यह बात पुख्ता होती है कि देश को एक बार गृहयुद्ध के करीब से होकर गुजरना पड़ेगा? अब इसका बचाव केवल यही है कि जिस प्रकार से नीतीश और चन्द्र बाबू नायडु ने अपनी राजनीतिक आधार में बदलाव किया है उसी प्रकार से अन्य दलों का विवेक भी जागे और वे कुछ अनदेखी करने का साहस दिखायें। जिस प्रकार से हिन्दू मतदाता तुष्टिकरण में लगी पार्टियों को प्रगतिशील बनकर वोट दे रहा है उसी प्रकार से मुस्लिम भी सुधारवादी बनकर वोट देना सीख जायेंगे? लेकिन नीतीश और नायडु को राजनीति में नये समीकरण देने का जनक जरूर माना जायेगा? बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को मोदी विरोधी राजनीति का पहला किरदार कहा जा सकता है। राजग से उन्होंने किनारा मोदी को भाजपा ने पीएम प्रत्याशी बनाया था तब किया था। मोदी का काम करने का विजन, वैश्विक प्रतिष्ठा और सहयोगी साथियों के साथ सहज और शालीनता का व्यवहार नीतीश के निर्णय को गलत सिद्ध करने में कामयाब हुआ और आखिरकार उनकी राजग में वापसी हुई। नीतीश राजनीतिक मजबूरी में राजग में आये लेकिन महत्वाकांक्षा उन्हें बार-बार निर्णय की समीक्षा करने को कहती रहती थी। इसलिए उन्होंने एक बार फिर साथ छोड़ा और मोदी विरोध की राजनीति करने के लिए आगे आये। परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस और उनके कुछ अन्य समर्थकों ने नीतीश की अगुवाई पर मुहर नहीं लगाई। इस विरोध में लालू प्रसाद यादव की पार्टी भी शामिल थी जिसके सहारे नीतीश ने भाजपा का साथ छोड़ दिया था। अब नीतीश एक बार फिर से राजग में आये और अब वादा करते हैं कि वे अब मोदी के साथ ही रहेंगे? इसलिए नीतीश का बिल के साथ आने का निर्णय आने वाले समय की राजनीति की नई पटकथा है। राजनीति में पलटुराम नाम नीतीश का तय हो गया लेकिन कमोवेश ऐसा ही हाल चन्द्रबाबू नायडु का भी है। वे भी हर चुनाव से पहले राजग के सहयोगी बनते भी हैं और हटते भी हैं। लेकिन वे दक्षिण भारत की राजनीति करते हैं इसलिए इधर उनको लेकर कोई उपनाम देने का लाभ नहीं हो सकता है। अत: उपमाओं का प्रयोग नीतीश तक आकर रूक जाता है। उत्तर भारत में मुस्लिम तुष्टिकरण और बहुसंख्यकवाद की राजनीति पर तेजी से काम चल रहा है। बहुसंख्यक मतदाताओं में आ रही जागरूकता ने यहां पर सत्ता समीकरण बदल दिये हैं। यह आम व्यक्ति की भावना नहीं है। यदि ऐसा होता तो जनसंघ के समय ही कांग्रेस का विकल्प दिखाई देने लग जाता। यह तो मुस्लिम तुष्टिकरण की पराकाष्ठा का परिणाम है। उसकी तीव्र प्रतिक्रिया है। साथ में हिन्दूवादी संगठनों के सकारात्मक और रचनात्मक कामों का परिणाम भी है। इसकी राजनीति और भाषणों की तुलना में व्यवहार और सहायता में सभी को एक भाव मिलता है। इस अन्तर की पहचान ने आरएसएस और भाजपा को ऊंचाई देने में बड़ा साथ दिया है। इसलिए अब दक्षिण भारत के पढ़ा लिखा मतदाता भी इस बात को समझने लगा है कि भारत की एकता और अखंडता मुस्लिम तुष्टिकरण वाले दलों के हाथ में सुरक्षित नहीं है। वे तो वोटों के सौदागरों के साथ मिलकर देश को बंटवारे की राह पर ले जा रहे हैं। इसलिए नायडु को राजग और भाजपा में भविष्य दिखाई देने लग रहा है। उनके राज्य में पवन कल्याण ने जिस राजनीतिक आस को जगाया है वह ही आने वाले समय ही धारा बनने वाली है। इसलिए वक्फ बिल पर नायडु की राजनीति भी दूरगामी राजनीति का संदेश है। दक्षिण में आने वाले समय की नई राजनीति का भी संदेश है। दो उदाहरण और इस बात के लिए हैं। केरल के ईसाई समुदाय को वक्फ के दावे से बड़ी परेशानी थी। लेकिन परम्परागत रूप से कांग्रेस के मतदाता होने के बाद भी उन्हें कांग्रेस से न तो सहयोग मिला और न ही विश्वास। लेकिन यही काम भाजपा ने कर दिखाया। हालांकि यह भाजपा का एजेंडा है फिर भी इससे केरल के ईसाई समुदाय ने राहत की सांस ली। अब वे भाजपा के साथ आते जा रहे हैं। यह कांग्रेस को केरल में नकारने की शुरूआत हो रही है। आने वाले समय में वह तमिलनाडु की भांति भी केरल में हाे जायेगी। लेकिन इसका प्रभाव नायडु की राजनीति पर पड़ा और उन्होंने अपनी धारा और दिशा को सही लाइन दे दी। एक बात समझने की है। केन्द्र में जिस दल की सरकार होती है वह दल की सरकार को अपनी विचारधारा के आधार पर शासन चलाने का प्रयास करता है। कानून वैसे ही होंने चाहिए। प्रशासन तंत्र की समझ भी उसी विचारधारा के आधार पर होना चाहिए। इसलिए वक्फ बिल का संशोधन आपेक्षित था। यह सर्जिकल स्ट्राइक नहीं है। मोदी सरकार ने अपनी विचारधारा तथा नाराें और वादों पर अपने कार्यकाल में काम करके दिखाया है। 370 से लगाकर तीन तलाक तक किस कानून या संशोधन से देश को नुकसान हुआ है? सांस्कृतिक उत्थान, विकास की योजनाओं और शिक्षा व स्वास्थ्य को लेकर जिस प्रकार के कार्य मोदीकाल में हुए उससे उनका विजन सामने आता है। लेकिन उनके कामों का हिंसक विरोध और न्यायालय में अटकाने की मानसिकता देश को विचार करने के लिए विवश करती है। पंडित नेहरू की सरकार से लगाकर इंदिरा और राजीव की सरकारों में मजहबी बदलाव हुए उनका कब बहुसंख्यक समाज ने इतना आगे जाकर विरोध किया? तब मुस्लिम समाज का सीमा से आगे आकर विरोध करना बताता है कि यहां तैयारी कुछ और ही है। संविधान को पढ़कर देखिए हिन्दू समाज की मान्यताओं पर शिकंजा कसने का काम जितना दिखेगा उतनी ही आजादी मुस्लिम समाज को संविधान में दी गई। वह भी उस स्थिति में जब बंटवारे के बाद पाकिस्तान ले लिया गया था। तब आज हो रहे विरोध का कोई मतलब दिखाई नहीं देता है। जनसंघ के समय जिस विचारधारा को सामने रखकर कांग्रेस का विकल्प दिखाया गया था वह आज तेजी से स्वीकार्य हो रही है। इसमें सबसे बड़ा सहयोग तो कांग्रेस की भटकती नीतियों का ही है। सर्वधर्म समभाव को छोड़ तुष्टिकरण और उसका दुरूपयोग करने से बहुसंख्यकवाद की राजनीति को बल मिला। अब संविधान में वे सब बदलाव तो होंगे ही जिनकी बंटवारे के बाद या पाक चले जाने के बाद देश काे जरूरत थी। इसे उन लोगों को भी स्वीकारना चाहिए जो एक और बंटवारे की लालच में भारत में रूक गये थे। उन्हें भी स्वीकारना होगा जो प्रगतिशीलता के नाम पर एक विशेष मानसिकता से देश का मानस बनाने का प्रयास करते रहे हैं। देश की राजनीति भी बदली है और उस बदली हुई राजनीति से देश ने विकास का सही अर्थ भी समझा है। इस बदलाव को समय के साथ राजनीतिक दल भी समझते जायेंगे। बिहार के सीएम नीतीश कुमार और आन्ध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडु ने इसको ताकत प्रदान की है। इसमें सहयोग चिराग पासवान का भी है। जहां तक इन नेताओं से मुस्लिम वोटों के छटकने का सवाल है तब उससे अिधक बहुसंख्यक और पसमांदा वोटों का सहयोग मिल जायेगा। उनको तो कोई राजनीतिक घाटा नहीं होगा यह सच है। लेकिन देश को उससे अधिक फायदा हो जायेगा? तुष्टिकरण और मुस्लिम प्रभाव की राजनीति अब दम तोड़ने की दिशा में जाती हुई दिखाई दे रही है। (लेखक हिन्दी पत्रकारिता फाउंडेशन के चेयरमैन हैं) (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) ईएमएस / 10 अप्रैल 25