राष्ट्रीय
07-Apr-2025
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नई दिल्‍ली (ईएमएस)। भारत में लाखों परिवारों पर सबप्राइम लोन नहीं चुकाने पर संकट मंडरा रहा है। एक सर्वे के मुताबिक करीब 68 फीसदी लोग लोन नहीं चुका पा रहे हैं। इस वजह से इस क्षेत्र में पैसा लगाने वाले निवेशकों को नुकसान हो सकता है। यह उद्योग करीब 45 अरब डॉलर का है। विशेषज्ञों का मानना है कि आरबीआई को इस पर निगरानी रखनी चाहिए। उनका कहना है कि फाइनेंशियल इन्क्‍लूजन का मतलब सिर्फ लोन देना नहीं है, बल्कि यह भी तय करना होता है कि लोग उसे चुका सकें। बता दें सबप्राइम कर्ज वे लोन होते हैं जो उन बॉरोअर को दिए जाते हैं जिनकी क्रेडिट हिस्‍ट्री अच्छी नहीं होती है। लोन चुकाने में देरी की समस्या बढ़ रही है। 91 से 180 दिनों के बीच लोन की किस्त जमा न होने का आंकड़ा 3.3 फीसदी बढ़ गया है जो जून 2023 में 0.8 फीसदी था। इससे स्थिति और खराब हो सकती है। देखा जा रहा है कि बहुत से लोग पुराने लोन चुकाने के लिए नए लोन ले रहे हैं। कुछ लोग तो इतने परेशान हैं कि उन्हें अपने बच्चों की पढ़ाई तक छुड़वानी पड़ रही है। इससे पता चलता है कि आने वाले दिनों में लोन डिफॉल्‍ट और बढ़ सकते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि यहां जिन सबप्राइम लोन की बात हो रही है, वे 2007-2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान अमेरिका में दिए गए लोन से अलग हैं। ये छोटे लोन हैं, जिन्हें माइक्रोफाइनेंस कहा जाता है। ये लोन उन लोगों को दिए जाते हैं जिनके पास नियमित नौकरी नहीं है या जो अपना छोटा-मोटा धंधा करते हैं। भारत में ऐसे लोन की बहुत मांग है। पहले माइक्रोफाइनेंस कंपनियां कुछ लोगों के समूह को लोन देती थीं। समूह के सभी सदस्यों की जिम्मेदारी होती थी कि वे समय पर लोन चुकाएं। इससे लोन की वसूली आसानी से हो जाती थी। लेकिन, कोरोना महामारी के दौरान सामाजिक दूरी के नियमों के कारण समूह में बैठकें बंद हो गईं। माइक्रोफाइनेंस संस्थानों के लिए समूह एकजुटता के उसी स्तर को बनाए रखना मुश्किल हो गया है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ग्राहकों को अब पता है कि समूह में शामिल होने के सामाजिक दबाव से बचना संभव है। रिपोर्ट के में एक रिसर्च के मुताबिक सोशल कोलेट्रल का कमजोर होना विनियमन के लिए गंभीर समस्या है। जब समूह की जिम्मेदारी प्रभावी नहीं रहती तो लोन लेने का जोखिम व्यक्तिगत हो जाता है। इससे यह पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि कौन लोन चुका पाएगा और कौन नहीं। शहरों में गरीब लोग अपनी आय और खर्चों के बारे में ऑनलाइन जानकारी देते हैं। इससे लोन देने वालों को उनकी क्रेडिट योग्यता का आकलन करने में थोड़ी मदद मिलती है। लेकिन, गांवों में ज्यादातर लोग नकद में लेनदेन करते हैं। इसलिए, उनकी आय और खर्चों का पता लगाना मुश्किल होता है। माइक्रोफाइनेंस का सावधानीपूर्वक बनाया गया अर्थशास्त्र अब अस्त-व्यस्त हो गया है। बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख मुहम्मद यूनुस को 2006 में इसके लिए नोबेल शांति पुरस्कार मिला था। इसलिए, लोन देने वालों को निगरानी के लिए एक नए नजरिये की जरूरत है। 2022 में आरबीआई ने माइक्रोफाइनेंस बॉरोअर की परिभाषा को बदल दिया। अब 300,000 रुपये सालाना कमाने वाला परिवार भी माइक्रोफाइनेंस लोन ले सकता है। शहरों में यह सीमा 50 फीसदी बढ़ गई। गांवों में यह वृद्धि और भी अधिक थी। आरबीआई ने सभी लोन पर कुल मासिक पुनर्भुगतान को आय का 50 फीसदी तक सीमित कर दिया। कार्यकारी निदेशक कहते हैं कि हर समाज में स्टेटस दिखाने की होड़ होती है, लेकिन जब माइक्रोफाइनेंस तक पहुंच बहुत आसान हो जाती है और लोन देने वाले पर्याप्त जांच नहीं करते हैं तो स्टेटस दिखाने की होड़ बहुत तेजी से बढ़ सकती है। अब जब ज्यादा कर्ज हो गया है तो कुछ संस्थानों को विफल होने दें। लोन देने पर सख्त नियंत्रण लगाने से मौजूदा संकट और बढ़ सकता है। सरकार को बॉरोअर्स को व्यवस्थित तरीके से कर्ज कम करने में मदद करनी चाहिए। भारत के दिवालियापन कानून में इसका प्रावधान है। लेकिन, यह अभी तक व्यक्तियों पर लागू नहीं हुआ है। आरबीआई को एक पर्याप्त बाजार निगरानी प्रणाली स्थापित करने की जरुरत है। सिराज/ईएमएस 07 अप्रैल 2025