लेख
30-Mar-2025
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भारत के वरिष्ठ और बेबाक कवि इंदीवर ने लिखा था- ‘‘इतिहास मुझे पसंद नही, इतिहास पढ़ाना बंद करो.... मानव इतना गिर सकता है, ये सबक सिखाना बंद करो....’’ उस विराट कवि की ये पंक्तियां आज भी भारत में अवतरित हो रही है। आज हमारे और हमारे देश के वर्तमान हालातों की किसी को भी चिंता नही हैै, सब बाबर-राणा-सांगा में खोए हुए है। अर्थात् जो इतिहास मौजूदा पीढ़ी को सबक लेने के लिए होता है, उस इतिहास व उसके पात्रों को आदर्श वर्तमान भूगोल की किसी को भी चिंता नही है। क्या हमारा देश अब पूर्णतः चिंता मुक्त हो गया है? जो उसे अपना इतिहास याद करने की फुरसत मिल गई, आज भी देश में गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसे कई अहम् मुद्दें है, जिन पर ध्यान दिया जा सकता है। किंतु मौजूदा सोच के बारे में क्या कहा जाए? आज का चलन ही यह हो गया है कि खुद के बारे में कोई नही सोचता और दुनिया भर की चिंता करता रहता है, हम कहां है? किस स्थिति में है? आज की स्थिति का निदान क्या है? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने की किसी को भी चिंता नही है, हमारे इतिहास पुरूषों पर बकवास करने का समय सभी के पास है। हॉं, यदि इन इतिहास पुरूषों के साथ घटी घटनाओं या उस समय की परिस्थति से कुछ सबक लेने की लालसा होती तो बात अलग थी। लेकिन ऐसा कतई नहीं है, सिर्फ और सिर्फ ‘‘किस्सा गोई’’, इन्हें याद करने का आज इनका मक्सद क्या हैै? यह किसी के भी समझ में नही आ रहा है, आज मौजूदा पीढ़ी का हर वर्ग सिर्फ और सिर्फ मौजूदा माहौल से उस ऐतिहासिक माहौल की तुलना करने में ही व्यस्त है। अरे भाई, बहुत हो गया हमारा इतिहास अध्ययन अब इतिहास को छोड़कर मौजूदा भूगोल की भी खोज-खबर लो, आज सबसे पहले इस बात पर चिंतन जरूरी है कि प्रकृति हमेशा रूठी हुई है? हमने ऐसा कौन सा घौर अपराध किया है? जिसका दण्ड प्रकृति हमें दे रही है। आज हर कहीं भूकम्प है, तो कहीं अत्याधिक गर्मी या वर्षा, कहीं पहाड़ गिर रहे है तो कहीं जंगल आग के हवाले हो रहे है। आखिर यह प्राकृतिक प्रकोप की स्थिति क्यों निर्मित हो रही है? प्रकृति आज हमसे इतनी नाराज क्यों है? इस मसले पर अब व्यापक रूप से आत्म चिंतन बहुत जरूरी है और यदि हम दोषी है तो उसे मानना भी जरूरी है। क्योंकि हमने अब तक प्रकृति का हर तरीके से दोहन करने में कोई कमीं नही की, हमने हर तरीके से बेशर्मी के साथ इसका दोहन किया है। इसलिए ये प्रकृति हमसे गंभीर रूप से नाराज है और उसने हमें दण्डित करना शुरू कर दिया है। प्रकृति और मानव के रिश्तों का यह मौजूूदा स्वरूप दोनों के ही लिए चिंतनीय है। जब तक मानव और प्रकृति एक-दूसरे के मित्र बनकर नही रहेंगे तब तक संतुलन की स्थिति कैसे बनगी। जबकि आज की स्थिति में यह बेहद जरूरी है, दोनों को एक-दूसरे की चिंता करना जरूरी है, किंतु हमें उसकी फिक्र कहां है? हम तो हमारे इतिहास पुरूषों में खोये हुए है, कभी बाबर को कोसते है तो कभी राणा-सांगा को गालियां देते है? क्या मौजूदा हालातों में हमारी भूमिका ऐसी होनी चाहिए? इस मसले पर आज तक किसी ने भी चिंता की? आज की सबसे बड़ी विसंगति ही यही है कि हम अपनी स्वयं की चिंता छोड़ दुनियां भर की चिंताओें में शामिल हो जाते है? हम अपनी व अपने आसपास के साथ देश की स्थिति परिस्थिति पर ध्यान ही नही देते। क्या आज हमारे अपने हालात अच्छे है? क्या हम हर चिंता से मुक्त है? यदि ऐसा नही है तो फिर मौजूदा हालात बिगड़े हुए क्यों है? इसीलिए आज कवि इंदीवर जी व उनकी पंक्तियां याद आई, क्योंकि इतिहास सीखने के लिए होता है, दोहराने के लिए नहीं? ईएमएस / 30 मार्च 25