भारतीय राजनीति के सबसे प्रभावशाली गठजोड़ों में से एक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के रिश्ते एक जटिल और रहस्यमयी यात्रा से गुजरे हैं। एक ओर जहां भाजपा राजनीतिक पार्टी के रूप में सत्ता की राजनीति में अपनी छाप छोड़ती रही है, वहीं आरएसएस ने हमेशा इसे अपने वैचारिक और संगठनात्मक समर्थन से ताकत दी है। इन दोनों संस्थाओं का संबंध हमेशा सहयोगी तो रहा है, लेकिन अंदरूनी संघर्ष, नेतृत्व चयन और रणनीतिक दृष्टिकोण को लेकर दोनों के बीच गहरे मतभेद भी उभरते रहे हैं। अब, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चयन को लेकर एक बार फिर इन मतभेदों ने न केवल मीडिया की सुर्खियाँ बनाई हैं, बल्कि भविष्य में इस गठजोड़ के आगे के रास्ते को लेकर भी गंभीर सवाल खड़े किए हैं।बता दे कि आरएसएस का गठन भारतीय समाज में अपनी विशेष पहचान बनाने और उसे अपनी सांस्कृतिक दृष्टि से सजग करने के लिए हुआ था। भाजपा का जन्म भी इसी संस्था के विचारों से प्रेरित था, और आरएसएस ने हमेशा भाजपा को अपने मार्गदर्शन से लाभान्वित किया है। मगर सत्ता की राजनीति और संगठन की कार्यप्रणाली में समय-समय पर दोनों के बीच मतभेद सामने आते रहे हैं। विशेषकर, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चयन को लेकर इन मतभेदों ने अब गंभीर रूप ले लिया है। भाजपा और आर.एस.एस. के बीच खाई की गहराई का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बीच तनाव की खबरें सामने आ रही हैं। मोदी ने अपने राजनीतिक करियर में बार-बार यह साबित किया है कि वे केवल चुनावी जीत नहीं, बल्कि सत्ता में स्थिरता बनाए रखने के मास्टरमाइंड भी हैं। वहीं, आरएसएस की सोच और कार्यशैली का एक अलग संसार है, जो भारतीय समाज को एक संगठित सांस्कृतिक धारा में लाने की ओर केंद्रित है। यही फर्क, दोनों के बीच असहमति का मुख्य कारण बन रहा है। कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी भाजपा के नए अध्यक्ष के रूप में एक ऐसा नेता चाहते हैं, जो मोदी की विचारधारा और नीतियों के प्रति निष्ठावान हो। वहीं, आरएसएस चाहती है कि नया अध्यक्ष ऐसे व्यक्ति को बनाया जाए, जो संघ की विचारधारा के प्रति सच्चा हो और पार्टी के संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करें। अब बात करते हैं उस नेता की, जिनका नाम भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर प्रमुखता से उभरकर सामने आ रहा है—संजय जोशी। जोशी, जिनका नाम आरएसएस के पसंदीदा उम्मीदवार के रूप में लिया जा रहा है, जोशी जो भाजपा में एक समय सशक्त और प्रभावशाली नेता रहे हैं। उन्होंने संगठन में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई हैं, और भाजपा के कार्यकर्ताओं के बीच अपनी सादगी और संगठनात्मक क्षमता के लिए जाने जाते हैं। हालांकि, उनका राजनीतिक करियर विवादों से भी अछूता नहीं रहा। 2005 में जब एक कथित अश्लील सीडी सामने आई, तो जोशी को भाजपा से इस्तीफा देना पड़ा, लेकिन जांच में यह सीडी झूठी साबित हुई। इसके बावजूद, उनका नाम हमेशा चर्चाओं में रहा। अब, जब जोशी को पार्टी का नया अध्यक्ष बनाने की चर्चा हो रही है, तो यह मोदी और संघ दोनों के बीच तनाव की एक नई लहर पैदा कर रहा है। जोशी के साथ मोदी का पुराना मतभेद रहा है, और यह सवाल उठता है कि क्या मोदी और जोशी के बीच का यह तनाव पार्टी के नेतृत्व को प्रभावित करेगा? प्रधानमंत्री मोदी और उनके करीबी सहयोगी अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ने सत्ता की राजनीति में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। वे किसी भी रणनीतिक कदम को काफी सोच-समझकर उठाते हैं। अब, जब भाजपा का नया अध्यक्ष चुनने का सवाल है, तो मोदी और शाह की सोच यह है कि कोई ऐसा नेता चाहिए, जो मोदी की नीतियों के प्रति पूरी निष्ठा रखे। इस कारण, संघ द्वारा पसंद किए गए जोशी के नाम पर असमंजस का माहौल पैदा हो गया है। इसके अलावा, भूपेंद्र यादव, धर्मेंद्र प्रधान और शिवराज सिंह चौहान जैसे अन्य नेताओं के नाम भी चर्चा में हैं, लेकिन उनका भविष्य संगठन की सोच और शक्ति के संतुलन पर निर्भर करेगा। अगर भाजपा और आरएसएस के बीच यह तनाव बढ़ता है, तो इसका असर पार्टी के संगठनात्मक ढांचे और उसकी चुनावी रणनीतियों पर पड़ा सकता है। संघ का महत्व पार्टी में कभी कम नहीं हुआ, और पार्टी का नेतृत्व संघ के विचारों के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। लेकिन मोदी के नेतृत्व में भाजपा की चुनावी रणनीति ने पार्टी को नए रास्ते पर चलने का अवसर दिया है। इन दोनों के बीच संतुलन बनाए रखना कठिन हो सकता है, और यह सवाल उठता है कि क्या भाजपा संघ की विचारधारा के प्रति सच्ची निष्ठा दिखाएगी, या फिर मोदी की नई दिशा और नीतियों को स्वीकार करेगी? भाजपा और आरएसएस के बीच यह संघर्ष और मतभेद कहीं न कहीं भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चयन के मुद्दे पर एक नई राजनीतिक दिशा की ओर इशारा कर रहे हैं। यह खाई समय के साथ बढ़ सकती है या फिर समझौते के रास्ते पर भी जा सकती है। फिलहाल, संजय जोशी, शिवराज सिंह चौहान, भूपेंद्र यादव और धर्मेंद्र प्रधान जैसे नेताओं के नाम इस राजनीतिक खेल के महत्वपूर्ण मोहरे बनकर उभरे हैं। अब देखना यह होगा कि भाजपा और आरएसएस के रिश्तों की यह शीत युद्ध कब समाप्त होगी, या फिर यह और गहरी होती जाएगी। (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) ईएमएस / 29 मार्च 25