बीजिंग (ईएमएस)। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को भी फुटबॉल बेहद पसंद है। उन्होंने अपने देश को महान बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी है। मगर फुटबॉल के मामले में वे मात खा रहे है। दरअसल, चीन एथलेटिक्स में कमाल कर रहा है। लेकिन फुटबॉल के मामले में दुनिया से पिछड़ चुका है। दरअसल सईतामा में चीन और जापान के बीच फुटबॉल मैच चल रहा था। जापान 6-0 से आगे निकल चुका था। जापानी मेसी के नाम से मशहूर ताकेफुसा कुबो और उनकी टीम के साथी काफी देर से चीन के खिलाड़ियों को मैदान में छका रहे थे। तभी कुबो ने सातवां गोल दागकर चीन को हरा दिया। चीन को वर्ल्ड कप क्वालिफाइंग मैच में सबसे बदतर हार मिली। जब से जिनपिंग सत्ता में आए हैं, वे चीन को दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बनाने में लगे हुए हैं। इसमें वह बहुत हद तक कामयाब होते दिख रहे हैं। मगर, फुटबॉल उन्हें दुख दे जाता है। दरअसल, चीन दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश है। उसकी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है। खुद फुटबॉल के जबरा फैन जिनपिंग ने यह सपना पाल लिया कि वह चीन को फुटबॉल की दुनिया में यूरोप और दक्षिणी अमेरिकी देशों का वर्चस्व तोड़ दूंगा। मगर, एक दशक बाद भी उनका सपना सपना ही रह गया। 2012 में जिनपिंग सत्ता में आए तब उन्होंने फुटबॉल के प्रति उनके प्यार ने चीन में फुटबॉल को सुधारने और बेहतर बनाने की एक मुहिम शुरू कर दी। उन्होंने कहा था कि उनकी मरने से पहले तीन इच्छाएं हैं कि चीन वर्ल्ड कप के लिए क्वालिफाई करे, वर्ल्ड कप की मेजबानी करे और आखिरकार वर्ल्ड कप जीते। मगर, ये इच्छाएं अधूरी ही नजर आ रही हैं। चीन में बताया जाता हैं कि फुटबॉल कम्युनिस्ट पार्टी के नियंत्रण में पनप नहीं पाया। इसका जवाब हमें 2015 की एक महत्वपूर्ण सरकारी रिपोर्ट में मिल जाता है। जिसमें कहा गया है कि चीनी फुटबॉल एसोसिएशन (सीएफए) के पास कानूनी स्वायत्तता होनी चाहिए और यह खेल के सामान्य प्रशासन (जीएसए) से स्वतंत्र होना चाहिए। लेखक रोवन सिमंस की किताब में कहा गया है कि चीन की एक पार्टी वाली सरकार ऊपर से फैसले थोपती है। यह आर्थिक विकास के लिए प्रभावी है, लेकिन प्रतिस्पर्धी टीम खेलों में इसके नतीजे खराब होते हैं। फीफा भी सरकार के दखल पर पाबंदी लगाता है। मगर, चीन में फुटबॉल बिना नेताओं के आदेश के इधर-उधर घूम भी नहीं सकता है। चीनी आंकड़े बताते हैं कि इंग्लैंड में 13 लाख रजिस्टर्ड खिलाड़ी हैं, जबकि चीन में 100,000 से कम फुटबॉलर ही हैं। जबकि चीन की आबादी इंग्लैंड की तुलना में 20 गुना अधिक है। यूरोप और दक्षिण अमेरिका में शीर्ष स्तर का फुटबॉल हर शहर और गांव में सड़कों और पार्कों से पैदा होता है। मगर, चीन में इसकी शुरुआत बीजिंग से हुई। 1990 के दशक तक सरकार ने देश की पहली पेशेवर लीग की स्थापना नहीं की थी। इसने प्रमुख शहरों में कुछ शीर्ष क्लब बनाए, मगर लेकिन जमीनी स्तर पर इसकी उपेक्षा की। महामारी और उसके बाद चीन में आर्थिक मंदी के बाद से 40 से अधिक पेशेवर क्लब बंद हो गए, क्योंकि सरकार समर्थित कंपनियों ने अपने निवेश को वापस लेना शुरु किया। निजी कंपनियों ने भी इस मामले में अपने हाथ पीछे खींच लिए। चीन में भ्रष्टाचार भी चरम पर है। फुटबॉल में अधिकारियों ने भ्रष्टाचार किए। पिछले साल चीनी फुटबॉल में भ्रष्टाचार विरोधी गिरफ्तारियों की अभूतपूर्व बाढ़ सी आ गई थी। नौकरशाही और नेता इस भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। कई गिरफ्तारियां हुईं, मगर इसका असर नहीं पड़ रहा है। भारत की नेशनल फुटबॉल टीम भी कभी विश्व कप नहीं खेल पाई। हालांकि, भारतीय टीम ने 1950 में क्वालीफाई किया था, मगर किन्हीं वजहों से वह मैच खेलने ब्राजील नहीं जा सकी। 1950 के बाद से भारत को टूर्नामेंट में कोई प्रविष्टि नहीं मिली है। भारतीय फुटबॉल टीम ने 1962 में जकार्ता में दक्षिण कोरिया के खिलाफ एशियाई खेलों में जीत हासिल की। इसकी वजह यह है कि भारत में क्रिकेट को सभी खेलों से ज्यादा तवज्जो मिली। फुटबॉल जैसे खेलों पर ध्यान नहीं दिया गया। साथ ही भ्रष्टाचार, लापरवाही जैसी भी वजहें जिम्मेदार रहीं। आशीष दुबे / 28 मार्च 2025