लेख
09-Mar-2025
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शिक्षा एकमात्र ऐसा हथियार है जिससे हम अपना और राष्ट्र का विकास कर सकते हैं। वैसे तो पुरातन काल में हमारे देश में पुरुषों को ही शिक्षा ग्रहण करने की अनुमति दी जाती थी लेकिन सभी पुराने जंजीरों को तोड़ते हुए महिलाओं को शिक्षा देने के उद्देश्य से समाज के सामने देश की सबसे पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले का विलक्षण व्यक्तित्व सामने आता है। एक दौर में जब महिलाओं को घर की चारदीवारी में कैद रखा जाता था, सावित्रीबाई फुले ने समाज के रूढ़िवादी मान्यताओं को चुनौती देते हुए नारी सशक्तिकरण का बिगुल बजाया। महज नौ वर्ष की उम्र में विवाह बंधन में बंधी सावित्रीबाई ने अपने पति ज्योतिराव फुले के साथ मिलकर समाज सुधार के अनेक कार्य किए। वह भारत की पहली महिला शिक्षिका, समाज सुधारक थीं, जिन्होंने महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए कड़ा संघर्ष किया। उनके प्रयासों से शिक्षा के माध्यम से सामाजिक और शैक्षणिक क्रांति की नींव पड़ी। सावित्रीबाई फुले भारतीय समाज की एक महान शिक्षिका, समाज सुधारक और महिला अधिकारों की अग्रणी थीं। उनका जन्म 3 जनवरी 1831 को पुणे के नजदीक नायगांव में हुआ था। सावित्रीबाई फुले ने भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए अपने जीवन का सम्पूर्ण समय समर्पित किया। उन्होंने न केवल महिलाओं के शिक्षा अधिकार की वकालत की, बल्कि समाज के उत्पीड़ित वर्गों के लिए भी कार्य किया। सावित्रीबाई का विवाह 9 वर्ष की उम्र में महान समाज सुधारक ज्योतिराव फुले से हुआ था। फुले ने समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों के खिलाफ आवाज उठाई थी। वे स्त्री शिक्षा के समर्थक थे और उन्होंने सावित्रीबाई को पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित किया। सावित्रीबाई ने अपनी शादी के बाद ही शिक्षा के क्षेत्र में कदम रखा और एक नई दिशा की ओर बढ़ी। 1 जनवरी 1848 को सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले ने पुणे में लड़कियों के लिए भारत का पहला स्कूल खोला। यह उस समय सामाजिक रूढ़ियों के विरुद्ध एक क्रांतिकारी कदम था। इस पहल का रूढ़िवादी समाज ने घोर विरोध किया। उन्हें अपमान सहना पड़ा, रास्ते में उन पर पत्थर फेंके गए और गालियां दी गईं लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। महिलाओं और दलित समुदाय को शिक्षित करने के अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने कठोर संघर्ष किया। धीरे-धीरे फुले दंपति ने पुणे और उसके आसपास के गांवों में 18 स्कूलों की स्थापना की। सावित्रीबाई जब पढ़ने स्कूल जाती थीं तो लोग उन्हें पत्थर, कूड़ा और कीचड़ फेंकते थे। वह अपने साथ एक जोड़ी कपड़ा साथ लेकर जाती थीं और स्कूल पहुंचकर गोबर और कीचड़ से गंदे हो गए कपड़ों को बदल लेती थीं। उन्होंने हिम्मत नहीं और और हर चुनौती का सामना किया। पढ़ने के बाद उन्होंने दूसरी लड़कियों और दलितों के लिए एजुकेशन पर काम करना किया।सावित्रीबाई फुले को शिक्षा के क्षेत्र में महान योगदान देने के लिए हमेशा याद किया जाएगा। 1848 में उन्होंने भारत में पहली बार महिलाओं के लिए एक स्कूल खोला। यह स्कूल पुणे के एक उपनगर में स्थित था और यहाँ पर केवल लड़कियाँ ही पढ़ने आती थीं। इस पहल ने भारतीय समाज में शिक्षा के प्रति महिलाओं के अधिकार को उजागर किया और उनके लिए शिक्षा के द्वार खोल दिए।सावित्रीबाई फुले ने अपनी शिक्षा प्रणाली में जातिवाद, धर्मवाद और लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास किया। उन्होंने सिखाया कि शिक्षा केवल एक व्यक्ति की क्षमता का निर्माण नहीं करती, बल्कि यह समाज को भी एक बेहतर दिशा में मार्गदर्शन देती है। सावित्रीबाई ने न केवल शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कियाबल्कि उन्होंने समाज के अन्य क्षेत्रों में भी सुधार की दिशा में कई कदम उठाए। उन्होंने बाल विवाह, सती प्रथा और विधवा पुनर्विवाह जैसे कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। वे समाज में महिलाओं के लिए समान अधिकारों की वकालत की और उ महिलाओं के हक में कई अभियान चलाए। सावित्रीबाई ने 1854 में सीनियर स्कूल में दलित बच्चों को भी शिक्षा देने की पहल की थी। इससे यह साबित हुआ कि उनके लिए किसी भी जाति या धर्म के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार समान था। उन्होंने यह भी सिखाया कि समाज में लैंगिक समानता और अधिकारों की स्थिति को लेकर पुरुषों और महिलाओं को एक समान दृष्टिकोण रखना चाहिए। सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवन में कई व्यक्तिगत संघर्षों का सामना किया। उनका समाज ने कई बार विरोध किया, ताने मारे और कई बार उन्हें शारीरिक रूप से भी प्रताड़ित किया गया लेकिन उन्होंने इन सभी कष्टों को सहन किया और अपने कार्यों को जारी रखा। वे जीवनभर समाज की जड़ता और पितृसत्तात्मक मानसिकता से संघर्ष करती रहीं। सावित्रीबाई फुले ने भारतीय समाज में महिलाओं और समाज के निचले वर्गों के लिए जो कार्य किए, वह अत्यंत प्रेरणादायक हैं। उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया कि शिक्षा ही समाज के सुधार और जागरूकता का सबसे शक्तिशाली साधन है। उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता और वे आज भी महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और सामाजिक समानता के प्रतीक के रूप में जानी जाती हैं। सावित्रीबाई ने औरतों के हक के लिए बहुत लड़ाई लड़ी। उन्होंने सिर्फ औरतों के लिए ही नहीं, बल्कि उन लोगों के लिए भी आवाज उठाई जिन्हें समाज में कमतर समझा जाता था। उन्होंने जाति-पाति, छुआछूत और विधवाओं के साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ खड़े होकर बात की। सावित्रीबाई ने गरीबों और औरतों को पढ़ाने के लिए स्कूल खोले। उन्होंने लोगों को यह समझाया कि सब बराबर हैं और किसी को कम नहीं समझना चाहिए। महाराष्ट्र में 1875 से 1877 के बीच बहुत बड़ा अकाल पड़ा था। लोगों को उस दौर में खाने-पीने की चीज़ें नहीं मिल पा रही थी और सभी बहुत बीमार पड़ रहे थे। सावित्रीबाई ने सत्यशोधक समाज नाम के एक समूह का नेतृत्व किया। इस समूह के लोगों ने बहुत सारे बीमार लोगों की मदद की। सत्यशोधक समाज के लोग बिना किसी पंडित या पुजारी के शादियां करवाते थे। उन्हें दहेज लेने-देने का भी विरोध था। 1896 में फिर से महाराष्ट्र में बहुत बड़ा अकाल पड़ा। इस दौरान सावित्रीबाई को पता चला कि उनके दोस्त पांडुरंग बाबाजी गायकवाड़ का बेटा बहुत बीमार है। सावित्रीबाई तुरंत उनके पास गईं और बीमार बच्चे को अपनी पीठ पर उठाकर डॉक्टर के पास ले गईं। इस दौरान खुद सावित्रीबाई भी बीमार हो गईं। उन्हें प्लेग नाम की बीमारी हो गई थी। इसी बीमारी की वजह से 10 मार्च, 1897 को सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया। सावित्रीबाई ने कन्या हत्या को रोकने के लिए प्रभावी पहल भी की थी। उन्होंने न सिर्फ महिलाओं को सशक्त करने के लिए अभियान चलाया बल्कि नवजात कन्या शिशु के लिए आश्रम तक खोले। जिससे उनकी रक्षा की जा सके। सावित्रीबाई फुले ने अपना पूरा जीवन केवल लड़कियों को पढ़ाने और समाज को आगे बढ़ाने के लिए समर्पित कर दिया। सावित्रीबाई फुले का जन्म एक दलित परिवार में हुआ था लेकिन फिर भी बचपन से ही उनका लक्ष्य था कि ‘किसी के साथ भी कोई भेदभाव ना हो और हर किसी को बराबरी का हक मिलने का साथ पढ़ने का समान अवसर मिले। उनके विचारों की वजह से वह भारत की पहली महिला शिक्षक, कवियत्री, समाजसेविका बनी जिनका मुख्य मकसद महिलाओं का उत्थान रहा। सावित्रीबाई फुले की यात्रा यह सिखाती है कि जब तक समाज में समानता और न्याय नहीं आता, तब तक निरंतर संघर्ष करना आवश्यक है। उनके द्वारा किए गए कार्यों ने न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया में महिलाओं और उत्पीड़ित वर्गों के लिए एक नया रास्ता खोला। उनकी निडर भावना और यथास्थिति को चुनौती देने का दृढ़ संकल्प अविश्वसनीय है। हर तरह के दमन और भेदभाव के खिलाफ उनकी लड़ाई प्रशंसनीय है। फुले ने महिलाओं को शिक्षा और आत्मनिर्भरता का जो अमूल्य उपहार दिया उसकी बदौलत वह आज भी याद की जाती हैं । उनके जीवन ने यह साबित किया कि समर्पण, लगन और संघर्ष से समाज की हर बाधा को पार किया जा सकता है। महिला शिक्षा को लेकर उनका योगदान कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ) ईएमएस / 09 मार्च 25