लेख
06-Mar-2025
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भारत सरकार पूरे देश में सभी धर्मावलंबियों के लिए एक समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) लागू करने की तैयारी कर रही है।वहीं मध्य प्रदेश में जिला फैमिली कोर्ट इंदौर ने एक जैन दंपत्ति की तलाक की अर्जी पर जैन शास्त्रों का हवाला देते हुए एक आदेश पारित किया है। जिसमे हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत जैन नहीं आते हैं। इंदौर में जैन युगल ने जिला फैमिली कोर्ट में तलाक की अर्जी दी। प्रथम अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश धीरेंद्र सिंह ने यह कहते हुए अर्जी को खारिज कर दिया। जैन धर्म, हिंदू धर्म की मूल मान्यताओं के विपरीत है। जैन धर्म वैदिक मान्यताओं का विरोध करता है। इस कारण से हिंदू मैरिज एक्ट के तहत न्यायालय में सुनवाई का अधिकार उन्हें नहीं है। न्यायाधीश महोदय ने 10 वीं शताब्दी के जैन आचार्य श्री वर्धमान सूरी द्वारा रचित नीति ग्रंथ आचार दिनकर का उल्लेख करते हुए लिखा। इस ग्रंथ में जैनों के लिए विवाह विधि का उल्लेख किया गया है।वह हिंदू विवाह विधि से अलग जैनों का अलग पर्सनल लॉ है। जज ने अपने आदेश में हिंदू धर्म की मूलभूत वैदिक मान्यताओं को जैन द्धारा अस्वीकार करने वाला बताया। जज ने अपने फैसले में लिखा, जनवरी 2014 से जैन अल्पसंख्यक समुदाय के अंतर्गत आता है। जैन धर्म के लोंगो को हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तलाक प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं रह गया है। जैनों का अपना पर्सनल लॉ है। जज ने आदेश में पंडित जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक भारत एक खोज का हवाला देते हुए लिखा, जैन निश्चित रूप से हिंदू या वैदिक धर्म का हिस्सा नहीं हैं। कोई भी जैन, आस्था से हिंदू नहीं है। आदेश में लिखा है, जैनों को अपनी धार्मिक एवं सामाजिक परंपराओं को पालन करने का संवैधानिक अधिकार है। जैन धर्म के लोगों को हिंदू पर्सनल लॉ का कोई अधिकार नहीं है। यदि ऐसा किया जाता है, तो जैनों की धार्मिक स्वतंत्रता का हनन होगा। न्यायाधीश ने अपने आदेश में लिखा जैन धर्म का कोई भी अनुयाई अपने धर्म की हजारों वर्ष पुरानी सुस्थापित सामाजिक एवं धार्मिक परंपरा के रहते हुए वैवाहिक विवाद के निराकरण के लिए सेक्शन 7 के तहत कुटुंब न्यायालय के समक्ष प्रतिवाद प्रस्तुत करने के लिए स्वतंत्र है। न्यायाधीश ने इस मामले के साथ करीब 24 अन्य जैन विवाहित युगलों की पहले से विचाराधीन तलाक की अर्जियों को एक साथ जोड़कर यह आदेश सुनाया है। जिसकी प्रतिक्रिया राष्ट्रीय स्तर पर हो रही है। जैन दंपति ने फैमिली कोर्ट के उक्त आदेश को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में चुनौती दी है। इस संबंध में जैन समाज के इतिहास की जानकारी देते हुए वरिष्ठ पत्रकार मीनू जैन ने सोशल मीडिया में कहा, जैन समाज को चाहिए, वह विद्वान न्यायाधीश को साधुवाद ज्ञापित करे। अति प्राचीन जैन नीति शास्त्रों और साहित्य को न्यायाधीश ने अतीत के अंधेरों से निकालकर समसामायिक विमर्श के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया है। न्यायाधीश ने जैन समाज के धार्मिक ग्रंथो के शाश्वत सत्य पर अदालत की मोहर लगा दी है। यह सत्य भी बता दिया है, जैन धर्म को मानने वालों क़ी हिंदू धर्म पर आस्था नहीं हो सकती है। दोनों धर्म की आस्थाएं अलग-अलग हैं। पर्सनल लॉ से अभिप्राय विभिन्न धर्मों की सामाजिक व्यवस्था जिसमें विवाह, तलाक,संपत्ति, उत्तराधिकार और विरासत आदि के संबंध में बने हुए नियमों से होता है। इंदौर की फैमिली कोर्ट के इस फैसले ने जैन पर्सनल लॉ और जैन ग्रंथो को चर्चा में लाकर खड़ा कर दिया है। जिसके बारे में भारतीयों ओर अधिकतर जैनों को भी पर्सनल लॉ की जानकारी नहीं हैं। जैन धर्म के प्राचीन शास्त्रों में पर्सनल लॉ क़ी विस्तार से व्याख्या क़ी गईं है। जैन पर्सनल लॉ के प्रमुख स्रोत दिगंबर और श्वेतांबर दोनों जैन पंथो के शास्त्र हैं। आठवीं शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी के जैन आचार्यों ने ग्रंथो में लिपिबद्ध किया है। दसवीं शताब्दी के आचार्य वर्धमान सूरी एवं अन्य आचार्यों के प्राचीन नीति ग्रंथों की लंबी सूची है। जिसमें जैनों के विवाह, संपत्ति उत्तराधिकार, दान, स्त्री धन, विधवा विवाह, विधवा स्त्री का संपत्ति में अधिकार, भरण पोषण,दत्तक संतान, गोद लेने और संरक्षण सहित विभिन्न विषयों पर विस्तार से वर्णन किया गया है। आठवीं शताब्दी में आचार्य जिनसेन द्वारा रचित आदि पुराण में जैन समाज के रीति रिवाजों का ब्लूप्रिंट मिलता है। भद्रबाहु संहिता में दसवीं शताब्दी में वासुनंदी, इंद्र नंदी द्वारा रचित जिन संहिता, आचार्य सोमदेव सूरी द्वारा रचित यश तिलक चंपू, 11वी शताब्दी में आचार्य अमित द्वारा रचित वर्धमान नीति, 12वीं शताब्दी में हेमाचार्य द्वारा लिखित अर्हत नीति, भट्टारकजी द्वारा लिखित श्रवणाचार्य आदि अनेक ग्रंथों में जन्म से लेकर मृत्यु तक के जैनों श्रावकों के लिए सामाजिक रीति रिवाजों संस्कारों और उनसे संबंधित नियमों को विस्तार से लिपिबद्ध किया गया है। चार फेरों का विवाह इन ग्रंथों में वर्णित जैन विवाह विधि के अनुसार चार फेरों के उपरांत विवाह संपन्न माना गया है। जबकि हिंदू विवाह में सात फेरों के बाद विवाह संपन्न माना जाता है। यदि चार फेरे संपन्न होने के बाद भी पुरुष या स्त्री के चरित्र को लेकर कोई संदेह या किसी प्रकार का कोई झूठ सामने आता है। ऐसी स्थिति में विवाह विच्छेद किया जा सकता है। जैन ग्रंथों के अनुसार बुआ और मामा के बच्चों का भी आपस में विवाह हो सकता है। स्त्री के संपत्ति एवं अन्य अधिकारों को लेकर 1000 साल पहले भी जैन धर्म काफी प्रगतिशील विचार रखता था। 1000 साल का इतिहास उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है, विवाह को लेकर जैन धर्म और हिंदू धर्म के मध्य वाकई मूलभूत अंतर है। इंदौर क़ी फैमिली कोर्ट के न्यायाधीश ने जैन विवाह विधि को हिंदू विवाह विधि से भिन्न बताया है। उसका मुख्य आधार जैन नीति शास्त्रों में वर्णित चार फेरों की प्रथा है। जब 1000 साल पहले जैन पर्सनल लॉ धर्म ग्रंथों में लिपिबद्ध हो चुका था। तो यह कानूनी चर्चा में क्यों नहीं आया। इसका उत्तर तलाशने के लिए इतिहास में जाना होगा। ब्रिटिश काल और उससे पहले जैनों ने अपने शास्त्रों को छिपाए रखा। उन्हें सरकारी न्यायालयों में पेश करने का आचार्य विरोध करते रहे हैं। जैन दर्शन में शास्त्रों की पूजा की जाती है। इनको पूजा स्थलों से उठाकर न्यायालय में प्रस्तुत किए जाने से शास्त्रों की पवित्रता भंग होती है। जैन ग्रंथ कभी सरकार और न्यायालयों के सामने नहीं लाये गए। इसका परिणाम यह हुआ, जैन ग्रंथो की जानकारी आम जनता, शासन एवं न्यायालयों में कभी चर्चा के रुप में सामने नहीं आई। जैन धर्म के लोग राजाज्ञा को मानते हैं। राष्ट्र धर्म और राजा को सर्वोपरि मानने की जैन परंपरा है। जिसके कारण जन सामान्य क़ी धारणा है, जैनियों का कोई नीतिशास्त्र या पर्सनल लॉ नहीं है। जैन समाज के लोगों ने उनके सामाजिक विवादों का निपटारा प्रचलित शासन के कानून के अनुसार होता रहा है। अंग्रेजों के शासनकाल में हुआ विरोध भारत में जब अंग्रेजों के बने कानून एंग्लो हिंदू लॉ को जैनों पर लागू किया जा रहा था। उसको रोकने के लिए तत्कालीन जैन बैरिस्टर ने पहली बार जैन शास्त्रों को साक्ष्य के तौर पर न्यायालय में प्रस्तुत किया। बैरिस्टर जुगमेंदर लाल जैनी लॉ मेंबर एंड प्रेसिडेंट लेजिस्लेटिव काउंसिल में शामिल थे। उन्होंने 1908 में पहली बार जैन नीति शास्त्र भद्रबाहु संहिता जिन संहिता और आचार्य अमित की वर्धमान नीति का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया। यह अनुवाद 1916 में प्रकाशित हुआ।इसके बाद 1926 में बैरिस्टर चंपत राय जैन ने दिगंबर और श्वेतांबर दोनों पंथ के नीति शास्त्रों का एक संयुक्त संकलन जैन लॉ शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित किया। इसके बाद से जैनों से संबंधित विवाह, तलाक, संपत्ति उत्तराधिकार आदि विवादों में जैन लॉ पुस्तक को साक्ष्य के तौर पर प्रस्तुत किया जाने लगा। 1927 में एक जैन विधवा स्त्री द्वारा संतान गोद लेने के मामले में इसी भद्रबाहु संहिता के आधार पर पहली बार महिला के हक में फैसला न्यायालय द्वारा दिया गया। 1955-56 में भारत सरकार ने जैन लॉ को हिंदू कोड बिल में विलीन कर दिया था। उस समय जैन समाज ने इसका विरोध नहीं किया। सामाजिक मामलों में जैन समाज हिंदू बिल कोड को मानती आ रही है । इंदौर तलाक मामले से एक बार फिर हिंदू और जैन का मामला सुर्खियों में आया है। जेनियों को 2014 में अल्पसंख्यक समुदाय माना गया है। इंदौर के न्यायाधीश ने जो फैसला से सुनाया है। उसकी अवधारणा अल्पसंख्यक समुदाय में जैन समाज के शामिल होने को माना जा सकता है। यह आदेश तब सही माना जा सकता था। जब दोनों पक्षों में से किसी भी एक पक्ष ने जैन पर्सनल लॉ से विवाद निपटारे की मांग की होती। इंदौर की न्यायालय ने एक नए विवाद को जन्म दिया है। इसको लेकर हाईकोर्ट क्या फैसला देती है। इसका इंतजार करना होगा। जैन समाज धार्मिक मामलों में जैन धर्म के सिद्धांतों का पालन करती है। सामाजिक रूप से जैन समुदाय के लोग भारतीय संविधान और हिंदू कोड बिल के कानूनो का पालन करते हुए आए हैं। जातीय और धार्मिक अस्मिता के इस दौर में इंदौर फैमिली कोर्ट के न्यायाधीश का यह अप्रत्याशित आदेश, जैन पर्सनल लॉ के बारे मे क्या निर्णय करता है। इससे जैन पर्सनल लॉ का भविष्य में तय होगा। एसजे/06/03/2025