वैश्विक स्तरपर हज़ारों वर्ष पुरानी भारतीय संस्कृति सभ्यता तथा बड़े बुजुर्गों की कहावतें और मुहावरों का पीढ़ियों सेआज भी बहुत गुणगान नाम है। आज भी हम भारतवंशियों को जो कि दुनियाँ के किसी भी कोने में बसे हो उसमें भारतीय संस्कृति सभ्यता का अंश किसी न किसी रूप में ज़रूर दिखेगा और किसी न किसी रूप से भारतीय मुहावरों का भी संज्ञान उनके जीवन में बसा हुआ है। चूंकि आज हम बड़े बुजुर्गों की कहावतों मुहावरों पर बात कर रहे हैं और और हम देख रहे हैं की 5 फरवरी 2025 को दिल्ली विधानसभा का चुनाव है जिसका रिजल्ट 8 फरवरी 2025 को आना है कि अनेक पार्टियों नेताओं कार्यकर्ताओं ने अपने-अपने स्तर पर समय का संज्ञान लेते हुए अनेक बातों को उछालकर बात का बतंगड़ बना दिया था किसी ने तिल का ताड़ तो किसी ने राई का पहाड़ बनाया था लेकिन हम जानते हैं के यह सब चुनावी बातें हैं बातों का क्या?यह तो चुनावी बतंगड़ था? अब हम देखेंगे कि हर पार्टी नेता कार्यकर्ता ऐसी बातों का न बतंगड़ करेंगे और न ही ऐसे बयान देंगे और ना ही इनकी चर्चा होगी। अब फिर 2025 के अंत तक व 2026 में कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, चुनावों में फ़िर हमें वही उपरोक्त मुहावरों वाली बातें सुनाई देगी। इसलिए आज हम मीडिया में उपलब्ध जानकारी के सहयोग से इस आर्टिकल के माध्यम से चर्चा करेंगे, बात का बतंगड़ तिल का ताड़ और राई का पहाड़ (बीटीआर)। साथियों बात अगर हम उपरोक्त तीनों बीटीआर की करें तो बहुत छोटी-छोटी बातों को बहुत बड़ी बहस आरोप प्रत्यारोप का मुद्दा बना देने से है जैसा कि हमने अभी अभी 5 फरवरी 2025 को होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव के चुनाव में देखाकि नेता कार्यकर्ता चुनाव में एक दूसरे की छोटी बातों को बीटीआर, पति पत्नी में अपनी बात को लेकर बहस, आजकल के युवाओं में क्रोध के कारण बहस आरोपों और प्रत्यारोपों में हम देखते हैं कि बात इतनी बड़ी नहीं रहती जितना भयानक और खतरनाक उसे बनाया जाता है। कभी-कभी इसका परिणाम बहुत बड़े जुर्म और सामाजिक बुराई का रूप धारण कर लेता है, जिसमें हत्या संबंध विच्छेदन दुश्मनी बढ़ाना शारीरिक व मानसिक हानि होने जैसे अनेक घटनाएं हो जाती हैं। इसलिए हम सभी को चाहिए कि उपरोक्त तीनों बीटीआर से बहुत ही दूर रहकर सावधानीपूर्वक अपनी वाणी का प्रयोग कर हानियों से बचकर अपने आपको समाज को और राष्ट्र को समृद्ध बनाने में योगदान देने की कोशिश करें। साथियों बात अगर हम उपरोक्त बीटीआर की शुरुआत की करें तो यह मूल बात या विषय जब एक कान से दूसरे कानों तक पहुँचती है तो उस क्रम में हर एक बिचौलिया जैसे की व्यक्ति या संस्था अपने - अपने फायदे के अनुसार मूल बात को तोड़ता मड़ोड़ता रहता है,तब बातों का मूल विषय, भाव, या अभिप्राय बदल जाता है बात बतंगड़ बन जाती है। और ज्यादातर इसका हमारे समाज पर कुप्रभाव ही देखने को मिलता है। पर इस बढ़ा चढ़ा कर की गयी बात यानि बतंगड़ को पकड़ता कौन है? आप हम यानि की जनता I फिर जल्दी-जल्दी ट्वीट डिलीट करने का और ये किसी के व्यक्तिगत विचार हैं पार्टी के नहीं ये सब बातों का दौर चल पड़ता है। हमने इस तरह के बीटीआर को कई बार देखे हैं जिसे रेखांकित करना जरूरी है। साथियों हमने कई बार सुना ही होगा ये गीत सुनिए कहिये सुनिए बातों - बातों में प्यार तो जब मुदा बात ये है की हम कहेंगे की बताने में क्या रक्खा है, हम भी ना बातें करने लगे। बातों पर बातें तो बहुत होती है पर जब गौर से देखेंगे तो मूल में वही एक लाइनर छोटी सी लाइन को बीटीआर करके वायरल कर दिया जाता है। बातें जो है अब कम ही होती हैं क्यूंकि लोग भी स्मार्टफोन की तरह टची हो गएँ हैं न मालूम किसको किसकी बात बुरी लग जाये। आपने बड़े चाव से कोई शायरी लिखी कोई पिक्चर खिचवाया बस एक ब्लू लाइक हो गया। वैसे बतंगड़ का मजा तब है जब माहौल जम जाये जैसे नवोदित साहित्यकारों प्रेमी प्रेमिकाओं के लिए कॉफी हॉउस , गांव के यार दोस्त और गमछा बिछाकर बैठे किसी चाय की दुकान पर पान भी आ गयी और फिर बतंगड़ शुरू। साथियों लोग आमने सामने बैठने बोलने बतियाने को तरस गए हैं और कितने बुजुर्ग या नौजवान भी घोर अकेलेपन में कुंठित हो रहे हैं क्यूंकि खुलकर मनकी बात बोलने बतियाने वाला कोई नहीं रहा। मेरी पिता हमेशा कहा करती है कंगाल से जंजाल अच्छा। तो अकेलापन और उदासी से तो बतंगड़ ही भला। पर अंततः सकारात्मक कुछ निकले या कुछ प्रहशन या व्यंग्य हो पर किसी को ठेस न लगे।वैसे हम बिना विचारे किसी की बातों में मत आना चाइए क्या पता बतंगड़ ही हो। साथियों बात अगर हम उपरोक्त तीनों बीटीआर को मनोवैज्ञानिक तरीके से देखने के अनुमान की करे तो, कई लोग बात को सीधे कहने की बजाय घुमा फिरा के बीटीआर करके कहते हैं, हमारे अनुसार उनके ऐसा करने के पीछे क्या मनोविज्ञान हो सकता है? इसके पीछे अगर हम मनोविज्ञान की बात करें तो कई कारण हो सकते हैं।जैसे लोग हमसे बीटीआर के द्वारा कुछ जानने की इच्छा रखते हैं। पर वह हमसे सीधे पूछने में हिचकते हैं, जिसके कारण व बातों को घुमाते हैं, और फिर उन बातों को जानने का प्रयास करते हैं, जो वह जानना चाहते हैं। और इसके भी दो कारण हो सकते हैं, या तो वह यह नहीं बताना चाहते कि वह क्या जानना चाहते हैं, या फिर वह कुछ हमसे कुच्छ छुपाना चाहते हैं। और सत्य तो यह है कि आज के समय में कोई बात करते समय या हमको बिल्कुल अहसास तक नहीं होने देता कि वह हमसे क्या जानना चाहता है ,और वह बातों ही बातों में बात के बतंगड़ का प्रेशर देकर सब जान लेता है, जो वह जानना चाहता है, क्योंकि वह जानता है कि अगर वह सीधे-सीधे हमसे पूछेगा तो हम नहीं बताएंगे तो वह जानने के लिए बीटीआर करेगा? सीधे-सीधे जानने के लिए हमसे बातों को घुमा कर पूछेगा, और हम फिर उनकी बातों को सोचेंगे, कि वह हमसे ही बातें कर रहे हैं, और यह हमारे ही फायदे के लिए हैं।इसलिए हमे उन्हें अपना जवाब सीधे-सीधे ही दे देते हैं। जिसके कारण इसका फायदा उठाते हैं, और हमारी मन की बातों को जान जाते हैं,और हमारे मन की बात जान जाने के कारण ही वह आपकी कमजोरियों को भी जानते हैं,और हमारी कमजोरियां उनके लिए उनकी ताकत बन जाती है, जब वह हमारी कमजोरियों का फायदा उठाते हैं। इसलिए कभी भी किसी से भी बात करते समय यह जरूर ध्यान रखें कि अपनी कमजोरियों को उनको ना बताएं, क्योंकि इसमें सिर्फ आपका ही नुकसान है, और किसी का नहीं। इसीwलिए बात का बतंगड़ प्रेशर में रहकर हम सतर्क रहें। साथियों बात अगर हम बात के बतंगड़ को समझने की करें तो विचार करें तो बात या बातों को लेकर हिंदी में बहुत सारे मुहावरें और लोकोक्तियाँ हैं। बातें बनाना, बात बिगाडऩा या बिगडऩा, बातें ना मानना, बातों-बातों में, बात चली है तो दूर तक जायेगी, लातों के भूत बातों से नहीं मानते आदि। बात का बतंगड़ का अर्थ है- छोटी सी बात को अधिक बढ़ा देना। यह विचारणीय बात है कि बात का बतंगड़ भी सृष्टि में कोई भी जीव नहीं बनाता, केवल मनुष्य ही ऐसा करता है। वह बात-बात में टोका-टोकी कर एक दूसरे में कमी निकालता रहता है। स्वयं को कोई नहीं देख रहा है। हम अपने समाज जीवन में रोजना कितनी ही ऐसी घटनाओं को देखते हैं, जिनका कोई हाथ पैर नहीं होता है। कोई एक आगे बढ़कर माफी मांग ले तो बात वहीं समाप्त हो सकती है। लेकिन हम हैं कि बात को मानने वाले ही नहीं है। गांवों में गली-नाली की सफाई को लेकर बात का बतंगड़ सुबह-सुबह ही दिखाई-सुनाई पड़ जाता है। गलियों में बच्चों का खेलना और शोर मचाने को लेकर पड़ोसियों का बात का बतंगड़ बना देना आदि। महानगरीय जीवन में कई बार तो बीच सड़क पर या फिर रेड़ लाइट पर कोई गाड़ी, गाड़ी से हल्की सी टकराई और बन गया बात का बतंगड़। लंबा जाम और दोनों में से कोई किसी की सुनने वाला ही नहीं। बात का बतंगड़ कई बार पार्क में भी दिखाई दे जाता है। व्यर्थ की बात पर चर्चा हुई और बतंगड़ बन गया। राजनीति में तो बात का बतंगड़ बनना साधारण सी बात हो गई है। कितने ही राजनेता कहते सुनाई दे जाते हैं कि मेरी बात को तोड़-मरोड़ कर दिखाया या बताया जा रहा है। जब तक स्पष्टीकरण आता है, तब तक बात का बतंगड़ बन चुका होता है। हमें अपने समाज जीवन में छोटी-छोटी बातों को वहीं पर, उसी समय माफी मांग कर या उसका समाधान निकाल कर समाप्त कर देना चाहिए। उस बात को लेकर लंबा सोचने या लंबा घसीटने की जरूरत नहीं है। छोटे-छोटे प्रयास और छोटे-छोटे सुधार ही समाज में जागृति पैदा करते हैं। समाज को नया सोचने के लिए आकर्षित करते हैं। हमें देश के बारे में, समाज के बारे में, सृष्टि और जीवन के बारे में सोचना चाहिए। बात का बतंगड़ नहीं बनाना चाहिए, लोगों के जीवन में सुधार लाना चाहिए। अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर उसका विदेशी विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि बात का बतंगड़ तिल का ताड़ राई का पहाड़ आजकल अपने फायदे के अनुसार मूल विषय के भाव और अभिप्राय को बदलने का चलन बढ़ गया है। सभाओं में बातों के मूल विषय को अपने फायदे के अनुसार तोड़ मरोड़कर उसका भाव् अभिप्राय बदलने से बचने की जरूरत है। (-संकलनकर्ता लेखक - क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र ) (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) ईएमएस / 04 फरवरी 25