लेख
23-Jan-2025


पुण्यश्लोक देवी अहिल्याबाई का पूरा जीवन भारतीय परंपराओं के संरक्षण के लिये समर्पित था। सादी जीवन शैली, कुटुम्ब समन्वय, सामाजिक समरसता, आत्मनिर्भर समाज निर्माण, पर्यावरण संरक्षण की झलक उनके प्रत्येक कार्य में मिलती है। महेश्वर के निर्माण और भारत भर के विखंडित मान बिन्दुओं एवं सांस्कृतिक स्थलों के पुनर्निर्माण में उनके व्यक्तित्व और चिंतन की झलक मिलती है। महेश्वर साधारण नगर नहीं है। यह संसार के प्राचीनतम साम्राज्यों में एक रहा है। नारायण के सुदर्शन अवतार सहस्त्रबाहु जी की राजधानी यही स्थल था। तब इसका प्राचीन नाम महिष्मति था। लोकमाता अहिल्याबाई ने अपनी राजधानी बनाने के लिये एक ऐसे नगर की कल्पना की जो केवल राजधानी न हो अपितु सांस्कृतिक, ऐतिहासिक परंपराओं को सहेजने केसाथ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी हो। उन्होंने नये निर्माण के लिये न जंगल की कटाई कराई और न पहाड़ तोड़े। उन्होंने पुण्य सलिला नर्मदा किनारे मैदानी क्षेत्र चुना और मैदान में पड़े पत्थरों को एकत्र करके निर्माण के लिये तराशे। लोकमाता अहिल्याबाई ने कुटुम्ब समन्वय का कार्य अपने निजी जीवन में ही नहीं किया था। उन्होंने इसकी चिंता सामाजिक जीवन में भी की। लोकमाता अहिल्याबाई ने महेश्वर निर्माण के लिये श्रमिकों को उनके परिवार एवं कुटुम्ब सहित बुलाया। ऐसे कैंप लगाये गए जिनमें सभी श्रमिक अपने परिवार सहित रह सकें। परिवारों में पति-पत्नि बच्चे और माता पिता भी साथ थे। सब अपना भोजन बनाते और साथ बैठकर भोजन करते थे। श्रमिकों को काम भी उनकी रुचि पूछकर दिये गये। कौन मिट्टी खोद सकता है, कौन पत्थर तोड़ सकता है, कौन चुनाई कर सकता है और कौन ढुलाई कर सकता है । श्रमिकों को सभी कार्य उनकी रुचि के अनुसार आवंटित किये गये। इसी का परिणाम है कि महेश्वर का निर्माण इतना उत्कृष्ट हुआ जो आज ढाई सौ साल बाद भी आकर्षक है। इसके साथ उन्होने यहाँ निवासरत परिवारों की आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिये साड़ी निर्माण का कुटीर उद्योग स्थापित किये। आज की विश्व प्रसिद्ध महेश्वर साड़ी की नींव लोकमाता अहिल्याबाई ने रखी थी। उन्होंने आसपास के पूरे परिक्षेत्र में कपास की खेती को प्रोत्साहित किया। कपड़ा एवं साड़ी निर्माण से यह क्षेत्र समृद्ध हुआ। :: देशभर में सांस्कृतिक गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा :: अहिल्याबाई का व्यक्तिगत जीवन बहुत सीमित था लेकिन उनका चिंतन और कार्य असीमित थे। उनके मन मानस में केवल इंदौर राज्य की सीमा ही नहीं पूरे भारत राष्ट्र और सनातन समाज के सांस्कृतिक गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा की चिंता समाई थी। वे जानती थीं कि भारत में स्वत्व जागरण के लिये सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों का जीर्णोद्धार आवश्यक है। भारत के तीर्थस्थल केवल धार्मिक स्थल नहीं थे, अपितु शिक्षा, संस्कार और राष्ट्र चेतना का केन्द्र थे। आक्रांताओं ने केवल लूट के लिये उनका विध्वंस नहीं किया था। लूट के साथ भारतत्व को समाप्त करना भी उनका उद्देश्य था। अहिल्याबाई जानती थीं कि भारतत्व की पुनर्प्रतिष्ठा के लिये भारत के सभी धार्मिक और आध्यात्मिक स्थलों को पुनः जागृत करना आवश्यक है। ये सभी स्थल भारतत्व की पहचान है। उन्होंने पहले अपने राज्य को व्यवस्थित किया और फिर तीर्थों को पुनर्प्रतिष्ठा करने का अभियान छेड़ा। भारत का ऐसा कोई कोना नहीं जहाँ उन्होंने भारतीय सनातन संस्कृति के मान बिन्दुओं के संरक्षण का कार्य न किया हो। उन्होंने भारत के लगभग एक सौ तीस विभिन्न तीर्थ स्थलों और पवित्र नदियों के घाटों पर निर्माण कार्य कराया । कुछ मंदिरों में शिक्षा केन्द्र, व्यायाम शालाएं तथा अन्नक्षेत्र आरंभ कराये। तीस मंदिरों में संत निवास, प्रवचन कक्ष और प्रांगण बनवाये। ये निर्माण कार्य इतनी गुणवत्ता पूर्ण थे कि लगभग ढाई सौ वर्ष बीत जाने के बाद भी यथावत हैं। कहीं-कहीं आवश्यकता के अनुरूप कुछ परिवर्तन अवश्य हुये लेकिन निर्माण की नींव वही रही । गुजरात का सोमनाथ मंदिर तो ऐसा था जो लगभग आठ सौ वर्षों तक खंडहर के रूप में ही रहा। इसका पहला पुनर्निर्माण महारानी अहिल्याबाई ने ही कराया था । इसके साथ सभी ज्योतिर्लिंग, सुदूर हिमालय पर बद्रीनाथ धाम, दक्षिण में रामेश्वरम, जगन्नाथपुरी, द्वारिका, मथुरा श्रीकृष्ण मंदिर वाराणसी में विश्वनाथ धाम, विष्णु मंदिर और मणिकर्णिका घाट का निर्माण कराया। कोलकाता से वाराणसी राजमार्ग, केदारनाथ में तीर्थयात्रियों के लिए धर्मशाला, आलमपुर (म.प्र.)- हरिहरेश्वर, बटुक, मल्हारी मार्तंड मंदिर, राम हनुमान मंदिर, श्रीराम मंदिर, लक्ष्मी नारायण मंदिर, मारुति मंदिर, नरसिंह मंदिर, खंडेराव मार्तंड मंदिर, अमरकंटक में श्री विश्वेश्वर मंदिर, कोटितीर्थ मंदिर, गोमुखी मंदिर, धर्मशाला, वंश कुंड, आनंद कानन - विश्वेश्वर मंदिर, अयोध्या में श्री राम मंदिर, भैरव मंदिर, नागेश्वर सिद्धनाथ मंदिर, सरयू घाट, कुआं, स्वर्गद्वारी मोहताजखाना, और धर्मशाला का निर्माण कराया। बद्रीनारायण में श्री केदारेश्वर और हरि मंदिर, तीन धर्मशालाएं, मनु कुंड, देव प्रयाग में उद्यान और गर्म पानी का कुंड का निर्माण कराया गौशाला एवं चारागाह के लिये भूमि दान की ।बेरुल कर्नाटक मेः गणपति, पांडुरंग, जलेश्वर, खंडोबा, तीर्थराज और अग्नि मंदिर, कुंड का निर्माण कराया, भानपुरा में नौ मंदिर और धर्मशाला, भरतपुर राजस्थान में मंदिर, धर्मशाला, एवं कुण्ड, भीमाशंकर में धर्मशाला का निर्माण कराया और अन्नक्षेत्र आरंभ किया। भुसावल में चांगादेव मंदिर, बिठूर में भ्रमघाट, चंदवाड वाफेगांव में विष्णु मंदिर और रेणुका मंदिर, चित्रकुट में श्री राम मंदिर, द्वारका में मंदिर के जीर्णोद्धार के साथ धर्मशाला और पुजारी को कृषि योग्य भूमि, एलोरा में लाल पत्थर मंदिर, गंगोत्री में विश्वनाथ मंदिर, केदारनाथ, अन्नपूर्णा, भैरव मंदिर एवं धर्मशालाओं का निर्माण कराया, हरिद्वार में कुशावर्त घाट और एक विशाल धर्मशाला का निर्माण, हृषिकेश में श्रीनाथजी और गोवर्धन राम मंदिर, जगन्नाथ पुरी श्री रामचन्द्र मंदिर, धर्मशाला और उद्यान, जलगांव में राम मंदिर, उत्तरकाशी में धर्मशाला, रामेश्वरम् में हनुमान मंदिर, राधाकृष्ण मंदिर, पंचकोशी मार्ग एवं धर्मशाला, कपिला धारा धर्मशाला, शीतला घाट कोल्हापुर, मंदिर एवं पूजन व्यवस्था की, कुरूक्षेत्र में शिव शांतनु महादेव मंदिर, पंचकुंड घाट एवं लक्ष्मीकुंड घाट, मिरी अहमदनगर में भैरव मंदिर, नाथद्वारा में अहिल्या कुण्ड, मन्दिर एवं कुआँ, नीलकंठ महादेव मंदिर, शिवालय और गोमुख का निर्माण, नेमिषारण्य में महादेव मढ़ी, निमसार धर्मशाला, गो-घाट, चक्रतीर्थ कुंड, नीमगांव नासिक में मंदिर, ओंकारेश्वर में ममलेश्वर महादेव, अमलेश्वर, त्रयम्बकेश्वर मंदिर का निर्माण पंढरपुर महाराष्ट्र में श्री राम मंदिर, तुलसीबाग, होल्कर वाड़ा, सभा मंडप एवं धर्मशाला निर्माण कराया, प्रयागराज में विष्णु मंदिर, धर्मशाला, उद्यान, घाट, महल का निर्माण, पुष्कर में गणपति मंदिर, धर्मशाला एवं उद्यान का निर्माण प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त जहाँ से भी संदेश आता उन स्थानों पर मंदिर धर्मशाला, पवित्र नदियों पर घाट या अन्नक्षेत्र बनवाया जाता। कुछ प्रमुख मंदिरों में संस्कृत पाठशाला भी आरंभ कराई जातीं थीं। आज हम लोकमाता अहिल्याबाई की 300वीं जयंती मना रहे हैं। इतिहास के कुछ व्यक्तित्व प्रेरक होते हैं। लोकमाता अहिल्याबाई का स्मरण नमन् के लिये तो है ही इसके साथ उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रेरणा लेने की भी है। उनका जीवन शून्य से आरंभ हुआ था। वे अति साधारण परिवार में जन्मी थी। अपने व्यक्तित्व और प्रतिभा के कारण ही राजवधु बनी और जब उन्हे शासन संचालन का दायित्व मिला तो वे लोकमाता बनी। राजरानी और राजमाता तो सभी राज परिवारों में रहीं पर केवल अहिल्याबाई ही लोकमाता बनीं। (लेखक रमेश शर्मा वरिष्ठ पत्रकार है।) उमेश/पीएम/23 जनवरी 2025