लेख
22-Jan-2025
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(23 जनवरी पराक्रम दिवस पर विशेष) सुभाष चंद्र बोस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नेता थे। उनका नाम भारतीय आज़ादी के संघर्ष सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है। वे न केवल भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख नेता थे, बल्कि अपनी संघर्षशीलता के चलते दुनिया भर में प्रेरणा के स्रोत बने। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। उन्होंने न केवल भारतीय स्वतंत्रता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए बल्कि एक ऐसे नेता के रूप में उभरे जिन्होंने अपनी नीतियों, साहस और समर्पण से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी। सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक, उड़ीसा में एक प्रतिष्ठित बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माता का नाम प्रभावती देवी था। वे परिवार के नौवें और अंतिम संतान थे। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूरी कर सुभाष ने 1915 में बीमारी के बावजूद इंटरमीडिएट परीक्षा दी और द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की जिसके बाद 1919 में बी.ए. आनर्स प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर कलकत्ता विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान प्राप्त किया। अपनी अध्ययनशीलता के कारण वह कालेज में हमेशा अव्वल दर्जे के छात्र रहे। उन्होंने इंग्लैंड में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की। भारत माता को ब्रिटिश शासन सत्ता से मुक्ति के लिए हुए स्वाधीनता संघर्ष में भाग लिया। छात्र जीवन में ही सुभाष ने विवेकानन्द साहित्य का अध्ययन कर लिया था जिसने उन्हें राष्ट्रीय चेतना से समृद्ध किया और चिंतन-मनन करने की सुदृढ़ जमीन दी। पुत्र को आईसीएस बनाने की पिता की इच्छा का मान रखते हुए सुभाष 1919 में ब्रिटेन के लिए रवाना हुए और आईसीएस परीक्षा न केवल उत्तीर्ण की बल्कि अंग्रेजों की चाकरी को स्वीकार न कर भारत माता की सेवा-साधना का पथ अंगीकार किया। सेवा से त्यागपत्र देकर जून 1921 में भारत वापस आकर राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लिया। वे चित्तरंजन दास की स्वराज पार्टी से जुड़े और फारवर्ड समाचार पत्र का संपादन भी किया। 1923 में उन्हें अखिल भारतीय युवा कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। उनके क्रांतिकारी आन्दोलनों के चलते उन्हें 1925 में मांडले जेल भी भेजा गया जहाँ उन्हें तपेदिक की बीमारी हो गई थी। 1938 में बोस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। उस दौर को याद करें तो सुभाष की लोकप्रियता जबरदस्त रही। कांग्रेस के 51वें अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में दिया गया उनका भाषण दुनिया के सर्वश्रेष्ठ भाषणों में शुमार किया जाता है। कांग्रेस में सुभाष के बढ़ते प्रभाव से कुछ वषों में ही कांग्रेस के अन्दर के नेताओं का प्रभामंडल कमजोर होने लगा। इस दौर में गांधी जी से उनका मतभेद भी हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि 1939 के त्रिपुरा अधिवेशन में अध्यक्ष के मनोनयन की परम्परा के उलट कांग्रेस को चुनाव करवाना पड़ा। देश और कार्यकर्ताओं की पहली पसंद सुभाष थे लेकिन गांधी जी ने अपने प्रत्याशी के रूप में पट्टाभि सीतारमैया को सुभाष के विरुद्ध खड़ा कर जिताने की अपील की किन्तु सुभाष ने सीतारमैया को पराजित कर दिया जिस पर गांधी जी इस टिप्पणी कि सीतारमैया की हार मेरी हार है। सक्रिय सुभाष बहुत दुखी हुए और उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया। उन्होंने 1928 में नेशनल कांग्रेस के महासचिव के रूप में कार्य किया लेकिन उनकी नीतियों से असहमति होने पर वे कांग्रेस से अलग हो गए। विदेश प्रवास के दौरान सुभाष ने कांग्रेस के भीतर फारवर्ड ब्लॉक बनाकर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया तब उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया गया। बापू के सुझाव पर सुभाष कोलकता आकर देशबंधु जी के साथ काम करने लगे। दास ने कोलकता महापालिका का चुनाव लड़ा और जीत अर्जित कर महापौर बने। तब उन्होंने सुभाष को महापालिका का मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाया। यहां पर सुभाष ने की कार्यशैली ने सबका दिल जीत लिया और जनता के दिलों में अलहदा पहचान बनाने में सफलता हासिल की। आजादी की लड़ाई के दौरान वह 11 बार जेल भी गए। 1933 से 1936 तक जब स्वास्थय लाभ लेने के लिए वे यूरोप में रहना रहे तो मुसोलिनी और आयरलैण्ड के नेता डी. बलेरा से भेंट कर सहयोग का वचन लिया। आस्ट्रिया में चिकित्सा प्राप्त करने के दौरान पुस्तक लिखने हेतु टाईपिस्ट एमिली शेंकेल से प्रभावित हुए और उनसे विवाह कर लिया। हालाँकि अपनी राजनीतिक छवि को ठेस न पहुंचे इसलिए उन्होनें इस रिश्ते को बड़ा गोपनीय रखा। 29 नवम्बर 1942 को अनीता बोस के रूप में उन्हें पुत्री मिली जिससे वे कभी मिल नहीं सके। जनवरी 1941 में नजरबंदी के दौरान ही ब्रिटिश पुलिस और जासूसों को चकमा देकर वे जर्मनी पहुंचे। हिटलर एवं जर्मनी के अन्य नेताओं से भेंट कर आजाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। वहां से जापान पहुंच कर जनरल तोजो से भेंट की और जापानी संसद को सम्बोधित किया। जापान के सहयोग से रासबिहारी बोस के मार्गदर्शन में आजाद हिन्द फौज का गठन कर सिपाहियों और नागरिकों का आह्वान किया कि तुम मूझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर में टाउन हॉल के सामने आजाद हिन्द फौज के सम्मुख ओजस्वी भाषण देते हुए पहली बार दिल्ली चलो का नारा दिया था। उनकी फौज ने बर्मा, कोहिमा, इम्फाल के मोर्चे पर अंग्रेजी सेना से मुकाबला कर दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए। नेताजी ने स्वतंत्रता आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए जर्मनी के बर्लिन में फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना के साथ ही आज़ाद हिन्द रेडियो की भी शुरुआत की। इस रेडियो के माध्यम से आज़ादी के आंदोलन से जुड़े समाचार और कार्यक्रम प्रसारित किये जाते थे। अंग्रेजी सरकार सुभाष चन्द्र बोस से इतनी भयभीत थी कि सुभाष और आजाद हिन्द फौज के विरुद्ध दुष्प्रचार करने हेतु एक एंटी इंडिया रेडियो की स्थापना की थी। 21 अक्टूबर 1943 को सुभाष ने आजाद हिन्दुस्तान की अंतरिम सरकार बनाई जिसमें राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री का दायित्व स्वयं निर्वहन किया। इस आजाद हिन्द सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, आयरलैण्ड आदि देशों ने मान्यता प्रदान की थी। दूसरे विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद सुभाष आजादी की लड़ाई हेतु आवश्यक संसाधन जुटाने हेतु रूस जाने का निश्चय कर 18 अगस्त 1945 को हवाई जहाज से निकले किन्तु रास्ते में ही वे लापता हो गये। कहा गया कि उनका हवाई जहाज रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिसमें बोस की मृत्यु हो गई। हालांकि ताईवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बताया था कि उस दिन ताईवान के आकाश में कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं। सरकारी दस्तावेजों के अनुसार 18 अगस्त 1945 को बोस का निधन हुआ। नेताजी जापान जा रहे थे और उनका विमान ताइहोकू हवाई अड्डे के पास क्रैश हो गया जिस हादसे में वो बुरी तरह से जल गए और ताईहोकू अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई। हालाँकि उनका शव नहीं मिला लेकिन मृत्यु पर सवाल आज तक उठ रहे हैं। उनके मौत के रहस्य को सुलझाने के लिए देश में दो आयोग भी बने जिन्होंने विमान हादसे को मौत का कारण माना जबकि तीसरे आयोग ने 1999 में ये दावा किया कि 1945 में कोई विमान दुर्घटना ही नहीं हुई थी। सरकार द्वारा ये रिपोर्ट अस्वीकार कर दी गई। बोस की मृत्यु आज भी रहस्य बनी हुई है लेकिन उनका योगदान आज़ादी के संग्राम में अमिट रहेगा। पहले सुभाष चंद्र बोस का जन्मदिन 23 जनवरी को बोस जयंती के रूप में मनाया जाता रहा लेकिन 2021 में प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता संग्राम में नेताजी के अविस्मरणीय योगदान को देखते हुए इस दिन को पराक्रम दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। सुभाष जीवित रहे या विमान दुर्घटना का शिकार हुए यह सत्य तो काल के गर्भ में है लेकिन माँ भारती की सेवा में उनके योगदान को नहीं भुलाया जा सकता। उनका विचार था कि भारतीय समाज में व्याप्त जातिवाद, धर्मनिरपेक्षता, और असमानता को समाप्त कर एक मजबूत और समृद्ध राष्ट्र की नींव रखी जा सकती है। उनका उद्देश्य था कि भारत को आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ उसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्त कराया जाए। ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ) ईएमएस / 22 जनवरी 25