लेख
13-Jan-2025
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भारतीय चुनावी राजनीति में मुफ्त की राजनीति एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरी है। आज यह इतना प्रभावी हो गई है कि यह चुनावों का प्रमुख निर्धारक बन गई है। हकीकत यह है कि भारतीय राजनीति में मुफ्त की योजनाएं न केवल चुनावी जीत की कुंजी बन गई हैं, बल्कि इनका प्रभाव दूरगामी है, जो राष्ट्र के दीर्घकालिक विकास की प्राथमिकताओं को पीछे छोड़ देती हैं। मुफ्त की राजनीति भारत में कोई नई अवधारणा नहीं है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकारों ने गरीबी को कम करने और समाज के कमजोर वर्गों को सशक्त बनाने के लिए भूमि सुधार, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) और कृषि सब्सिडी जैसी योजनाओं की शुरुआत की थी। समय के साथ यह दृष्टिकोण विकसित हुआ और क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने मतदाता वर्गों को आकर्षित करने के लिए नई मुफ्त योजनाओं की शुरुआत की। तमिलनाडु ने 1970 के दशक में मुफ्त चावल, टेलीविजन और अन्य वस्त्रों की योजनाओं के साथ इस दिशा में अग्रणी भूमिका निभाई। प्रसिद्ध डॉ. एम. करुणानिधि और जयललिता ने मुफ्त साड़ियां और धोती जैसे उपहार पेश किए। इसी तरह, 1990 के दशक में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय कृषि ऋण माफी योजना के तहत लाखों किसानों के कर्ज माफ किए। यह कदम चुनावी लाभ तो दे सकता है, लेकिन दीर्घकालिक दृष्टिकोण से इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं। आज भारत में मुफ्त योजनाएं सिर्फ राशन कार्ड, बिजली और पानी तक सीमित नहीं हैं। ये नकद हस्तांतरण योजनाओं के रूप में भी प्रकट हो रही हैं, जैसे कि महिलाओं के लिए सीधा नकद हस्तांतरण। उदाहरण के लिए, हरियाणा ने लड़कियों के लिए पहले राज्य स्तर पर नकद हस्तांतरण की शुरुआत की। वर्तमान में, कम से कम दस राज्य इस प्रकार की योजनाओं को लागू कर चुके हैं। 2024-25 के बजट में, यह अनुमान है कि ये योजनाएं राज्यों पर भारी वित्तीय बोझ डालेंगी। कई राज्य सरकारें सीधे नकद हस्तांतरण योजनाओं के तहत अरबों रुपए खर्च कर रही हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान में यह राशि ₹12,000 करोड़ से अधिक है। यही स्थिति अन्य राज्यों जैसे कर्नाटक, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में भी देखी जा रही है। हालांकि ये योजनाएं तात्कालिक राहत प्रदान कर सकती हैं, लेकिन इनके दूरगामी परिणाम भी हैं। इन मुफ्त योजनाओं की भारी कीमत राज्यों के खजानों पर पड़ रही है। राज्यों की कर्ज की स्थिति कमजोर हो रही है और वे शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी ढांचे जैसे प्रमुख क्षेत्रों में निवेश करने में असमर्थ हो रहे हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य पर भारत की जीडीपी का केवल 2.1% खर्च होता है, जो वैश्विक औसत से काफी कम है। शिक्षा और अनुसंधान पर भी खर्च सीमित है। ग्लोबल स्तर पर, चीन और वियतनाम ने दीर्घकालिक निवेश के लाभों को समझा है। चीन अपने जीडीपी का 8% बुनियादी ढांचे पर खर्च करता है, जिससे तेजी से शहरीकरण और लाखों नई नौकरियां सृजित हो रही हैं। वियतनाम ने शिक्षा और कौशल विकास पर जोर दिया है, जिससे लाखों लोग गरीबी से बाहर निकले हैं। ऐसे देशों की तुलना में भारत की प्रगति धीमी होती जा रही है। भारतीय राजनीति में मुफ्त की राजनीति के लाभ और हानियां स्पष्ट हैं। यह तत्काल राहत तो प्रदान करती है, लेकिन दीर्घकालिक विकास की संभावनाओं पर गंभीर प्रश्न उठाती है। ऐसे में, भारत को अब अपनी आर्थिक नीति और राजनीतिक दृष्टिकोण में बदलाव की आवश्यकता है। मुफ्त की योजनाओं को केवल जरूरतमंद वर्ग तक सीमित करके अधिक लक्षित और प्रभावी बनाया जा सकता है। इसके बजाय, सरकारें शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, कौशल विकास और बुनियादी ढांचे जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निवेश करें, ताकि दीर्घकालिक और स्थायी विकास सुनिश्चित हो सके। यदि मुफ्त योजनाओं का उपयोग किया जाता है, तो उन्हें आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने और लोगों को रोजगार क्षमता प्रदान करने की दिशा में कार्य करना चाहिए। वास्तव में, भारत को अब चुनावी राजनीति की शॉर्टकट से ऊपर उठकर दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। ऐसा दृष्टिकोण जिसमें स्थायी प्रगति हो, न कि तात्कालिक लाभ। चुनावी राजनीति में मुफ्त की योजनाओं का उपयोग जरूरी है, लेकिन उन्हें सही तरीके से लागू करने और उनकी प्रभावशीलता सुनिश्चित करने के लिए उत्तरदायी और संवेदनशील होना आवश्यक है। सच तो यह है कि भारत के सामने अब एक महत्वपूर्ण विकल्प है: क्या वह दीर्घकालिक विकास की ओर बढ़ेगा या चुनावी राजनीति की शॉर्टकट से संतुष्ट होगा? केवल समय ही बताएगा। (लेखक के.के. झा इन्दौर के वरिष्ठ पत्रकार हैं) उमेश/पीएम/13 जनवरी 2025