राज्य
12-Jan-2025
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संभावना गतिविधि में भगोरिया नृत्य, अहिराई लाठी नृत्य एवं आल्हा गायन की प्रस्तुति हुई भोपाल(ईएमएस)। मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय में नृत्य,गायन एवं वादन पर केंद्रित गतिविधि संभावना का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें 12 जनवरी, 2025 को इंदरसिंह निगवाल एवं साथी, धार द्वारा भील जनजातीय भगोरिया नृत्य, संतोष कुमार यादव एवं साथी, सीधी द्वारा अहिराई लाठी नृत्य एवं रामरथ पाण्डेय एवं साथी, रायबरेली द्वारा आल्हा गायन की प्रस्तुति दी गई। संग्रहालय परिसर में आयोजित गतिविधि में दोपहर 02 बजे से अलग-अलग स्थान पर नृत्यों की प्रस्तुति दी गई। वहीं सायं में आल्हा गायन हुआ। गतिविधि में इंदरसिंह निगवाल एवं साथी, धार द्वारा भील जनजातीय भगोरिया नृत्य की प्रस्तुति दी गई। मध्यप्रदेश के झाबुआ और अलीराजपुर क्षेत्र में निवास करने वाली भील जनजाति का भगोरिया नृत्य, भगोरिया हाट में होली तथा अन्य अवसरों पर भील युवक-युवतियों द्वारा किया जाता है। फागुन के मौसम में होली से पूर्व भगोरिया हाटों का आयोजन होता है। भगोरिया हाट केवल हाट न होकर युवक-युवतियों के मिलन मेले हैं। यहीं से वे एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं, आकर्षित होते हैं और जीवन सूत्र में बंधने के लिये भाग जाते हैं इसलिये इन हाटों का नाम भगोरिया पड़ा। भगोरिया नृत्य में विविध पदचाप समूह पाली, चक्री पाली तथा पिरामिड नृत्य मुद्राएं आकर्षण की केन्द्र होती हैं। रंग-बिरंगी वेशभूषा में सजी-धजी युवतियों का श्रृंगार और हाथ में तीर-कमान लिये नाचना ठेठ पारम्परिक व अलौकिक सरंचना है। अगले क्रम में संतोष यादव एवं साथी, सीधी द्वारा अहिराई लाठी नृत्य की प्रस्तुति दी गई। बघेलखंड में यादव समुदाय द्वारा ‘अहिराई नृत्य’, अहिराई-लाठी नृत्य’, ‘बीछी नृत्य’ के साथ-साथ व्यापक स्तर पर अहीर नायकों की वीर गाथाएँ गाई जाती है। यह गाथाएँ अहीर गाथा गायन शैली एवं बिरहा गायन के रूप में प्रचलन में हैं, जिसमें चदैनी (महागाथा), छाहुर, ललना, चंदनुआ, गढ़ केउंटी, पदुम कंधइया आदि प्रमुख हैं । करतब प्रधान संगीतबद्ध लाठी संचालन को अहिराई-लाठी नृत्य कहा जाता है । यह एक युद्ध कला (मार्शल आर्ट) है जो कि नगड़िया, मादर की थाप पर लयात्मक हो जाती है । नृत्य में पारंपरिक परिधान कुर्ता, धोती, चौरासी एवं लोकवाद्य नगड़िया, शहनाई, बाँसुरी, मादर आदि का प्रयोग किया जाता है। गतिविधि में समापन प्रस्तुति रामरथ पाण्डेय एवं साथी, रायबरेली द्वारा आल्हा गायन की दी गई। आल्हा बुन्देलखण्ड के लगभग पूरे क्षेत्र में और उत्तरप्रदेश में महोबा, ललितपुर, हमीरपुर, बांदा, उन्नाव और इटावा क्षेत्रों में अत्यन्त लोकप्रिय कथा गायन है। बुन्देली लोकगीतों का आरंभ लगभग 12वीं शताब्दी से होता है, सुप्रसिद्ध लोक काव्य आल्हा उसी समय लिखा गया था। बघेली और बुन्देली संस्कृति का उक्त काव्य से अटूट संबंध है। आल्हाखंड में आल्हा उदल द्वारा लड़ी गई बावन लड़ाईयों का सम्पूर्ण वर्णन है। इस परम्परा के काव्योत्थान का श्रेय लोक कवि जगनिक को है। उन्होंने असाधारण दक्षता के साथ वीरता और श्रृंगार को उसकी सम्पूर्णता में समझा और लोक जीवन के यथार्थ के साथ उसे ऐसी रंजकता से चित्रित किया कि उस काव्य का आनंद असंख्य लो ले कसे। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में प्रायः वर्षा ऋतु में अधिसंख्य लोग गाते हैं। इसमें वाद्य के रूप में ढोल और टिमकी का प्रयोग होता है। आल्हा ब्रज, राजस्थान, मालवा, उत्तरप्रदेश के बुन्देली क्षेत्र और बुन्देलखण्ड में प्रचलित है। मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय़ में प्रति रविवार आयोजित होने वाली इस गतिविधि में मध्यप्रदेश के पांच लोकांचलों एवं सात प्रमुख जनजातियों की बहुविध कला परंपराओं की प्रस्तुति के साथ ही देश के अन्य राज्यों के कलारूपों को देखने समझने का अवसर भी जनसामान्य को प्राप्त होगा। यह नृत्य प्रस्तुतियां संग्रहालय परिसर में आयोजित की जायेंगी। मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय परिसर में प्रति रविवार दोपहर 02 बजे से आयोजित होने वाली गतिविधि में मध्यप्रदेश के पांच लोकांचलों एवं सात प्रमुख जनजातियों की बहुविध कला परंपराओं की प्रस्तुति के साथ ही देश के अन्य राज्यों के कलारूपों को देखने समझने का अवसर भी जनसामान्य को प्राप्त होगा। हरि प्रसाद पाल / 12 जनवरी, 2025