भारत में केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों पर बहस लंबे समय से चली आ रही है। केंद्र और राज्य सरकारों की भूमिका, आर्थिक असमानता, कर नीति, और संसाधनों का वितरण ऐसे मुद्दे हैं। जो वर्तमान में आर्थिक कारणों को लेकर चर्चा के केंद्र बिंदु में हैं। संविधान ने सभी नागरिकों को ‘लिविंग वेज’ जीवन जीने की बुनयादी हको का मूल अधिकार दिया है। 75 वर्षों के बाद भी यह सपना अधूरा बना हुआ है। भारत में पिछले 10 वर्षों में आर्थिक असमानता एक गंभीर समस्या बन चुकी है। देश की 94% आबादी असंगठित क्षेत्र में काम करती है। असंगठित क्षेत्र में उनकी मासिक आय स्तर न्यूनतम जीवन स्तर से नीचे हैं। प्रधानमंत्री के ई-श्रम पोर्टल के आंकड़े बताते हैं। करोड़ों श्रमिक ऐसी आय पर जीवन यापन कर रहे हैं। उनकी मासिक आय 10000 रूपये से भी कम है। वह अपना जीवन यापन भी नहीं कर पा रहे हैं। उन्हें टैक्स भुगतान की सीमा मैं लाना एक सपने की तरह है। इसके बाद भी जीएसटी के रूप में सबसे ज्यादा टैक्स गरीबों से वसूल किया जा रहा है। जिनकी मासिक आय 10000 रूपये से भी कम है। दूसरी ओर केवल 1.1 फीसदी लोग ही प्रभावी रूप से आयकर चुका पा रहे हैं। यह असमानता आर्थिक अस्थिरता बढ़ा रही है। संसाधनों के न्यायसंगत वितरण में भी बाधा है। गरीब आदमी के लिए अब भोजन जुटाना भी बड़ा मुश्किल हो गया है। केंद्र सरकार के कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती का उद्देश्य, निवेश को बढ़ावा देना और आर्थिक वृद्धि को बढ़ाने वाला बताया था। लेकिन यह केवल चुनावी जुमलों की तरह देखने को मिल रहा है। टैक्स कम होने के बाद कंपनियों ने केवल अपनी बैलेंस शीट मजबूत की हैं। न तो निवेश में वृद्धि हुई नाही कर्मचारियों की आय में सुधार हुआ। नौकरियां भी औद्योगिक क्षेत्र में नहीं बढ़ी। सरकार का जवाब है, 100 लाख करोड़ रुपये के सार्वजनिक पूंजी व्यय (कैपेक्स) का लक्ष्य रखा गया है। जिससे निजी निवेश को प्रोत्साहन मिलेगा। यह राशि भी सरकारी खजाने से कॉर्पोरेट को दी जाएगी। केंद्र सरकार की प्राथमिकता में कॉर्पोरेट है। केंद्र और राज्य सरकारों की प्राथमिकता से आम आदमी गायब हो गया है। राज्यों और केंद्र के बीच वित्तीय संसाधनों का बंटवारा भी एक बड़ी चुनौती है। केंद्र सरकार ने सेस और सरचार्ज के माध्यम से अपने राजस्व को कई गुना बढ़ाया है। जबकि राज्यों को मिलने वाले संसाधन 2014 की तुलना में घटे हैं। इससे राज्यों का कर्ज बढ़ता जा रहा है। राज्यों की वित्तीय स्वतंत्रता केंद्र पर आश्रित होकर रह गई है। शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चे पर भी स्थिति बहुत चिंताजनक हो गई है। वार्षिक स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट 2024 के अनुसार, 14-18 आयु वर्ग के 40% बच्चे बुनियादी पढ़ाई और गणित में कमजोर हैं। स्वास्थ्य सेवाओं में असमानता बढ़ी है। आयुष्मान योजना का बहुत प्रचार प्रसार किया जा रहा है। इसका लाभ आम गरीबों को ना मिलकर बीमा क्षेत्र की कंपनियों और बड़े-बड़े अस्पतालों को मिल रही है। सरकारी अस्पतालों में ना तो दवाई मिल रही है नाही स्पेशलिस्ट डॉक्टर हैं। नर्स और वार्ड बाय द्वारा गरीबों का इलाज किया जा रहा है। वर्तमान स्थितियों को देखते हुए वर्तमान एवं दीर्घकालिक समस्याओं के समाधान के लिए ठोस और दूरदर्शी आर्थिक नीतियों की आवश्यकता है। अल्पकालिक लाभों की केंद्रित राजनीति आम आदमी की तत्काल की जरूरतें को पूरी कर पा रही है। दीर्घकालिक संरचनात्मक सुधार सपने की तरह दिखाये जा रहे हैं। वर्तमान आर्थिक स्थिति को देखते हुए जरूरी है, केंद्र और राज्य मिलकर संसाधनों का बेहतर प्रबंधन करें। शिक्षा, स्वास्थ्य, आम आदमियों की बुनियादी जरूरतों पर केंद्र एवं राज्य सरकारें ध्यान केंद्रित करें। आम आदमी पर टैक्स का बोझ घटाया जाए। असंगठित क्षेत्र के रोजगार और उनमें कार्यरत श्रमिकों के लिए ठोस योजनाएँ बनाई जाएँ। आर्थिक नीति केवल आंकड़ों का खेल नहीं है। देश की आर्थिक नीति हर नागरिक के जीवन को बेहतर बनाने का साधन होनी चाहिए। आवश्यकता इस बात की है, सरकारें राजनीतिक मतभेदों से ऊपर आमजनों के हित में काम करें। आर्थिक नीति इस तरह की हो। जिसका बटवारा गरीबों और कारपोरेट जगत मे समन्वय बनाए। जिस जिसका लाभ देश के सभी नागरिकों को मिले। नागरिक के रूप में समानता का अधिकार संविधान एवं लोकतंत्र की परिभाषा है। वर्तमान आर्थिक स्थिति को देखते हुए केंद्र सरकार और राज्य सरकारें इस मामले में ठोस पहल करें। योजना आयोग खत्म होने के बाद जो नीति आयोग बनाया गया है। वह ना तो पारदर्शी है, नाही उसमें आर्थिक नीति के विशेषज्ञ हैं। ऐसी स्थिति में एक बार फिर योजना आयोग की स्थापना, अर्थतंत्र में केंद्र एवं राज्यों के संबंधों को मजबूत बनाने के जरूरत है। ईएमएस / 02 जनवरी 25