भारत की आजादी का यह 78वां साल है और गणतंत्र का हीरक वर्ष, इस लम्बी अवधि के दौरान अधिकांश समय तो कांग्रेस का ही राज रहा, किंतु पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में लगाए गए ढाई वर्षीय आपातकाल के बाद देश के वोटर ने नया प्रयोग कर प्रमुख प्रतिपक्षी दलों द्वारा गठित जनता पार्टी को शासन का मौका दिया, वह आजाद भारत में पहला गैर कांग्रेसी शासन था, उसके बाद अटल जी का राज आया और उसके एक दशक बाद पुनः सत्ता भाजपा के हाथों में आ गई और 2014 में श्री नरेन्द्र भाई मोदी जी प्रधानमंत्री बने जो आज भी यथावत है, आज राज-काज का यह इतिहास बताने का मेरा मुख्य मकसद यह है कि हमारे देश के आम वोटर की भी धारणाऐं समय-समय पर बदलती रही और प्रतिपक्षी दलों की सरकारें भी बनती रही और चूंकि भारत में केन्द्रीय स्तर पर केवल दो ही प्रमुख राजनैतिक दल मुख्य है, इसलिए देश की सत्ता इन्ही दोनों दलों कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी (पूर्व जनसंघ) के हाथों में ही केन्द्रित रही। इस दौरान 1977 के जनता पार्टी राज के बाद पिछली सदी के अंत में देश में भाजपा की सरकार बनी थी और उसके बाद 2014 में और इस दौरान मुख्य रूप से भाजपा का ही राज रहा और उसके सहयोगी संगठनों का भी बोलबाला रहा, जिनमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस.) भी शामिल है, भाजपा की पिछली सरकारें खासकर अटल जी की सरकार के समय भी संघ का वर्चस्व रहा, किंतु अब पहली बार मोदी जी के शासन के इस दौर में संघ अपने आपकों उपेक्षित और तिरस्कृत समझ रहा है और उसे महसूस हो रहा है कि पिछले एक दशक से उसकी कोई पूछ परख नही है, आज इसी बात की पीड़ा संघ प्रमुख मोहन भागवत के मुख मण्डल पर स्पष्ट नजर आ रही है, अब मोदी जी व उनकी सरकार कोई भी बड़ा फैसला लेने के पहले संघ से न तो बात करती है और न ही संघ के पदाधिकारियों को विश्वास में ही लेती है, मतलब यह कि इसी कारण संघ व उसके पदाधिकारी अपने आपको उपेक्षित और ठगा सा महसूस कर रहे है और यह सब पहली बार हो रहा है, संघ प्रमुख जिनके कि नेतृत्व में कभी भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद आदि संगठन हुआ करते थे, आज संघ व उनके पदाधिकारियों की कोई पूछ-परख ही नही है, संघ ने कभी सपने में भी ऐसे समय की कल्पना नही की थी, अब न तो मौजूदा केन्द्रीय सरकार में और न ही भाजपा संगठन में संघ की कोई पूछ-परख है, अर्थात् आज संघ पूरी तरह से हर तरफ से उपेक्षित है, यही पीड़ा संघ प्रमुख को दिन-रात सताए जा रही है और इसी पीड़ा में संघ प्रमुख की नित नई बयानबाजी उनकी ‘‘कराह के रूप में प्रकट कर रहे है’’। अब इन हालातों का भविष्य में किस पर क्या असर होगा? देश के आम वोटर की सहानुभूति किसके साथ रहेगी? यह तो भविष्य के गर्भ में है, किंतु राजनैतिक दलों को यह ध्यान रखना चाहिए कि आज के देश का आम वोटर उतना ‘नादान’ नही रहा है, जितना कभी था, इसलिए राजनीतिक दलों को अपनी भूमिका और उसका भविष्य सोच समझकर तय करना पड़ेगा। ईएमएस/02/01/2025