- लंदन की संसद में वीमन एंड इक्वैलिटी कमेटी ने किया खुलासा न्यूयार्क सिटी,(ईएमएस)। लंदन की संसद में वीमन एंड इक्वैलिटी कमेटी ने खुलासा किया है जिसके मुताबिक उनके यहां महिलाओं के पीरियड पेन को हल्का-फुल्का मानते हुए खुद डॉक्टर ही खारिज कर रहे हैं। पीरियड पेन को लेकर अगर कोई डॉक्टर के पास जाती है तो लौटा दिया जाता है। ये हाल लंदन से लेकर न्यूयॉर्क, और दिल्ली से लेकर खारतूम तक एक जैसा है। कोई घर न बैठा दे इसलिए कितनी ही बच्चियां स्कूल के रास्ते में छेड़ी जाकर भी चुप रहती हैं। घर न बैठना पड़े इसलिए कितनी ही महिलाएं अनचाही छुअन सहती हैं। घर न बैठना पड़े इसलिए आधी दुनिया हर महीने ऐंठते पेट के साथ भी तनकर बैठने को मजबूर है या फिर सीने के दर्द में गैस की दवा खाकर बेमौत मर जाती हैं। दिलचस्प बात ये है कि इसपर चर्चा भी सालों से हो रही है कि आखिर क्यों महिलाओं के दर्द को चुटकुला या बहाना समझा जाता है। कई अध्ययन हो चुके हैं और सैकड़ों रिपोर्ट्स छप चुकी है, लेकिन मामला वहीं अटका है, जहां सदियों पहले शुरू हुआ था। वह पीरियड ब्लड गलती से भी छू जाए तो लहलहाती फसल सूख जाती है। पशु मर जाते हैं। फलों से लदा पेड़ मुरझा जाता है। यहां तक कि पीतल पर जंग लग जाता है। रोमन दार्शनिक और प्राकृतिक चिकित्सक प्लिनी द एल्डर ने पीरियड्स के बारे में जब ये कहा तो बहस की कोई वजह नहीं थी। सीधी-सी बात है महीने के कुछ रोज स्त्री को काबू में रखा जाए ताकि दुनिया बेपटरी न हो। यही हुआ। पहले से ही सिकुड़कर जीती महिलाएं और सिमट गई लेकिन बात खत्म नहीं हुई। साल 1874 में एक अखबार में छपा एक आर्टिकल धूम मचा रहा था। उसके लेखक हेनरी मॉल्डस्ले को ब्रिटेन समेत यूरोप में बुलाया जाने लगा कि वे बोलें जिससे बागी महिलाएं काबू में आ जाएं। आर्टिकल में लिखा था स्त्री-पुरुष की तुलना दो बराबर के शरीर और दिमागों की तुलना नहीं है। महिलाएं महीने के कुछ दिन और जिंदगी के बहुत-सारे साल किसी बच्चे से भी कमजोर और मूर्ख हो जाती हैं। लंबी सैर या ज्यादा खाना खा लेने तक से पीरियड्स का डर और बढ़ जाता है। तो स्त्रियां आराम करें, और हल्का खाएं। एक तरफ हल्का भोजन- उच्च विचार पर पर्चे रंगे जा रहे थे, दूसरी तरफ कुछ महिलाएं पढ़ने-लिखने लगीं। लंबी सैर करते हुए वे मेडिकल कॉलेजों तक पहुंच गईं और डिग्री पाने लगीं। पुरुष एकमत हुए और साल 1873 में लंदन ऑब्सटेट्रिकल सोसायटी ने महिलाओं को अस्पतालों में रैंक लेने से रोकने के लिए वोट कर दिया। डॉक्टरों के तरकश में वही घातक तीर था- पीरियड्स में महिलाएं बेकार हो जाती हैं। वे अपना दर्द संभालेंगी या मरीज को? महिला डॉक्टरों को इस तर्क के साथ घर बैठा दिया गया यानी एक तरफ दर्द को मानने से ही इनकार कर दिया, दूसरी तरफ इसके हवाले से बंदिशें भी लगा दी गईं। साल 2023 में भारत में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका पर सुनवाई हुई। याचिकाकर्ता का कहना था कि कामकाजी महिलाओं को पीरियड लीव मिलनी चाहिए। इस पर तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि मेन्सट्रुअल लीव के कई पहलू हैं। लीव का प्रावधान बना देने से ये भी हो सकता है कि कंपनियां महिलाओं को काम पर रखने से कतराने लगें। पीठ ने तमाम सहानुभूति रखते हुए भी इस मामले में सीधा फैसला लेने से इनकार करते हुए कह दिया कि केंद्र चाहे तो ये निर्णय ले सकती है, हम बीच में नहीं पड़ेंगे। नीदरलैंड ऐसा देश है जहां स्त्री-पुरुष बराबरी पर हैं, चार साल पहले वहां के एक सर्वे में निकला कि पीरियड से गुजर रही सिर्फ 14 फीसदी महिलाएं ही छुट्टियां लेती हैं। इसमें भी केवल 20 फीसदी ही बॉस से असल वजह बता पाती हैं। ज्यादातर महिला कर्मचारियों को हर महीने एकाध दिन या तो बुखार आ जाता है, या फिर कोई फैमिली इमरजेंसी। दूसरा विश्व युद्ध खत्म होते ही जापान ने अपने यहां पीरियड लीव पॉलिसी लागू कर दी। वह चाहता था कि युद्ध में घर-बाहर संभालती थक चुकी महिलाएं थोड़ा आराम करें। इस बात को 70 साल से ज्यादा हो गए, लेकिन वहां हालात और खराब हैं। टोक्यो के फाइनेंशियल अखबार का सर्वे बताता है कि वैसे तो जापान की 48 फीसदी महिलाएं दर्द से निढाल रहती हैं लेकिन काम से छुट्टी नहीं ले पातीं। वजह? पीरियड्स पर छुट्टी मांगती महिलाएं या तो झूठी है, या नाकाबिल या फिर कमजोर। साल 2003 से अगले 10 सालों में इंग्लैंड और वेल्स में करीब साढ़े हजार महिलाओं की इसमें जान चली गई क्योंकि उनके पास बने लोगों को अंदाजा ही नहीं था कि महिलाओं को भी सीने में दर्द हो सकता है, या फिर उन्हें दिल का दौरा पड़ सकता है। ज्यादातर महिलाओं को घर पर ही गैस की दवा के साथ कुछ काम-धाम करने का नुस्खा थमा दिया गया। बकौल डॉ कॉमेन महिलाएं लगातार शर्मिंदा होती रहती हैं। अपने बीमार होने पर, बीमारी के खुलासे पर, दवाओं के खर्च पर, कमजोरी में घर या बाहर न संभाल पाने पर यहां तक कि वक्त से पहले मरते हुए भी उन्हें ये बात सातती है कि वे अपनी जिम्मेदारी छोड़कर जा रही हैं। इसी तजुर्बे के बाद डॉ कॉमेन ने एक किताब लिखी- ऑल इन हर हेड...इसमें उन्होंने बताया कि कैसे सदियों से महिलाओं की बीमारियों को वहम कहकर टाला जाता रहा। यहां तक कि अब भी दर्द में होने पर वे माफी मांगने लगती हैं। कुछ हफ्तों पहले की बात है, एक शख्स ने सोशल मीडिया पर पीरियड्स में बेहाल होती लड़कियों पर लंबी पोस्ट लिखी। अंग्रेजी में लिखी पोस्ट की एक लाइन थी- दुनिया ने तुम्हारा दर्द समझने का ठेका नहीं लिया है। दर्द है तो घर बैठो। कमाने का काम हम पर छोड़ दो। ट्रोल होने पर पोस्ट गायब हो गई, लेकिन केवल पोस्ट ही। सिराज/ईएमएस 14 दिसंबर 2024