आजादी पूर्व के जननेताओं की राजनीति और वर्तमान राजनीति में जमीन-आसमान का अंतर है। तब देश के ज्यादातर नेता आजादी को मुख्यउद्देश्य मानकर राजनीति करते थे। ऐसा करते हुए हमारे नेतागण तब अंग्रेजी हुकूमत के जुल्मों-सितम का शिकार होते थे, गोलियां खाते थे या फिर जेल जाया करते थे। इससे उलट आज की राजनीति स्वयं व पार्टी के वर्चस्व को कायम रखने पर केंद्रित होती दिखाई देती है। आजादी के 77 वर्ष बाद भी गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले राजनीतिक रोटियां सेंकने के काम आ रहे हैं। किसान अपने हालात सुधारने जी-जान से प्रयास करते हैं और समस्याओं के समाधान के लिए सरकार से गुहार भी लगाते हैं। ऐसे में जब उनकी सुनवाई नहीं होती तो वो दिल्ली कूच कर, देश और दुनियां का ध्यान अपनी ओर खींचते नजर आते हैं। मतलब साफ है कि किसानों के मुद्दे पर भी राजनीति होती है और मामला जस का तस खड़ा किसानों को मुंह चिढ़ाता दिखता है। इस सियासी माहौल में मंदिर-मस्जिद मामलों को गरमाने का भी काम बदस्तूर जारी है। उत्तर प्रदेश इसका केंद्र बना हुआ है। अयोध्या राम जन्म भूमि के बाद अब संभल जामा मस्जिद सर्वे पर जो हिंसा हुई है, उसने सभी को हिला कर रख दिया है। इस हिंसा में जहां पांच लोगों ने अपनी जान गंवा दी वहीं शांति बहाली के लिए तैरान पुलिसकर्मी भी बड़ी संख्या में घायल हो गए। हिंसा और पुलिस कार्रवाई के बाद क्षेत्र में तनाव और मातम का माहौल होने की बात कही जा रही है। इसी बीच कुछ विपक्षी नेताओं ने संभल जाने और हालात का जायजा लेने के साथ ही दु:खियों के आंसू पोंछने और उन्हें ढांढस बंधाने की बात कही, जिसे सरकार व प्रशासन ने सिरे से खारिज कर दिया। यहां मामले की गंभीरता को देखते हुए कांग्रेस सांसद व लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी और वायनाड सांसद प्रियंका गांधी संभल जाने के लिए काफिले के साथ निकल पड़ते हैं। ये नेता हिंसा में मारे गए लोगों के परिजनों से मुलाकात कर उनके दु:ख-दर्द को साझा करना चाहते हैं, उन्हें संबल देना चाहते हैं, लेकिन इससे पहले उनके काफिले को प्रशासन ने गाजीपुर बॉर्डर पर ही रोक दिया। इस पर राजनीति शुरु हो गई जहां एक तरफ राहुल समर्थकों के बयान आए वहीं समाजवादी पार्टी नेता रामगोपाल यादव कहते सुने गए कि कांग्रेस पार्टी संसद में तो संभल मुद्दा उठा नहीं रही है और राहुल गांधी संभल जा रहे हैं, इसे अब क्या कहा जाए? कांग्रेस औपचारिकता निभा रही है और पुलिस उन्हें जाने नहीं देगी। अब इन्हें कौन बताए कि इससे पहले तो खुद समाजवादी पार्टी का प्रतिनिधिमंडल संभल जाने को आतुर था। सपा अध्यक्ष व सांसद और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के निर्देश पर पार्टी का 15 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल संभल का दौरा करना चाह रहा था, लेकिन वह भी कामयाब नहीं हुआ। इसके बाद अब राहुल और प्रियंका ने यह कदम उठाया है। इस पर कांगेस नेता जयराम रमेश का बयान आता है कि राहुल और प्रियंका को संभल नहीं जाने देना तानाशाही है, जबकि वहां जाना हमारे नेताओं का संवैधानिक अधिकार है। इसी तरह की बात अखिलेश यादव भी कर चुके हैं। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफार्म में एक पोस्ट करते हुए कहा था कि संभल जाने पर प्रतिबंध लगाना भाजपा सरकार के शासन, प्रशासन और सरकारी प्रबंधन की नाकामी है। इस पोस्ट में एक महत्वपूर्ण बात यह कही गई है कि यह प्रतिबंध यदि सरकार उन लोगों पर पहले ही लगा देती, जिन्होंने दंगा-फसाद करवाने का सपना देखा और उन्मादी नारे लगवाए तो संभल में सौहार्दृ-शांति का वातावरण नहीं बिगड़ता। वाकई राजनीतिक रोटियां सेंकने की बजाय देशहित में यदि मामलों को शांतिपूर्ण ढंग से हल किया जाता तो न हिंसा होती और न ही किसी को अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ता। इस मामले में शासन-प्रशासन फेल रहा है, लेकिन विपक्ष भी इसे लेकर दूध का धुला नहीं कहा जा सकता है। आखिर मामले को विस्फोटक होने तक का इंतजार विपक्ष क्यों करता है? उससे पहले ही शासन-प्रशासन की आंखें खोलने के लिए जिम्मेदारी के साथ फैसले क्यों नहीं लिए जाते हैं और विरोधी कदम क्यों नहीं उठाए जाते हैं। जनहित में मामलों को उठाना और उस पर सार्थक बहस करना और जनता तक ले जाना विपक्ष की जिम्मेदारी होती है। उसे अपने गिरेबान में भी झांकने की जरुरत है। आखिर कांग्रेस नेता राहुल गांधी जैसे विपक्ष में कितने नेता मौजूद हैं जो बिना स्वंय के लाभ-हानि को देखे, देश की मूल समस्या को हल करने हजारों किलोमीटर का सफर पैदल तय कर रहे हैं। आखिर कब तक मुद्दों को बनाए रखने और राजनीतिक रोटियां सेंके जाने का खेल देश में जारी रहेगा? यह सवाल विचारणीय है, क्योंकि आजादी से पहले जो अमीर-गरीब के बीच खाई मौजूद थी वो आज और भी चौड़ी हो चली है, लेकिन हमारे देश के कर्ता-धर्ताओं को तो वह खाई दिखाई ही नहीं दे रही है। यह वह जख्म है जिसका यदि वक्त रहते इलाज नहीं किया गया तो यह नासूर बन जाएगा। इस पर सबसे पहले ध्यान देने और हल निकालने की आवश्यकता है। ऐसे ही तमाम मुद्दों का हल तलाशा जाना चाहिए। इसके बगैर संसद हो या बाहर ज्वलंत मुद्दे तो उठते ही रहेंगे, लेकिन हल कब निकलेगा यह यक्ष प्रश्न दशकों से अपनी जगह मौजूद है। देशहित में बिना ओछी राजनीति किए इस पर जरुर ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि तमाम छोटी-बड़ी समस्याओं का हल इसी में छिपा है। .../ 4 दिसम्बर /2024