आधुनिक समाज के लिए आत्महत्या एक बड़ा ज्वलंतकारी मुद्दा बना हुआ है। खासतौर पर तब जबकि दो से चार दशकों से पहले की अपेक्षा आज के समाज में ऐशा-ओ-आराम के साधनों की कोई कमी नहीं है। रोजगार के अवसर भी मनचाहे हैं, बावजूद इसके देश में आत्महत्या के आंकड़े डरावने नजर आते हैं। वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति में आत्महत्या करने का अपना एक अलग कारण होता है। कुछ डिप्रेशन और तनाव की वजह से आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं तो कुछ के पास मेडिकल कारण भी होता है। इसके अतिरिक्त जब इंसान अपनी परेशानियों से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं पाता, तब वह आत्महत्या की ओर अग्रसर होता है। संयुक्त परिवार में इस तरह की धारणा कम पाई जाती थी, लेकिन एकल परिवार के चलन ने इसमें बढ़ोत्तरी कर दी है। यही कारण है कि जब एनसीआरबी ने अपनी रिपोर्ट पेश की तो उसमें आत्महत्या करने के कारणों के बारे में बताते हुए कहा कि फैमिली प्रॉब्लम और एड्स व कैंसर जैसी घातक बीमारियों से तंग आकर लोग सबसे ज्यादा आत्महत्या करते हैं। विगत वर्ष ही 32फीसदी आत्महत्याएं फैमिली प्रॉब्लम के कारण हुईं, जबकि 19 फीसदी बीमारी की वजह से हुई। कुल मिलाकर बढ़ते सोसाइड केस आधुनिक समाज में युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर बढ़ते संकट की गंभीरता को ही उजागर करता है। आर्थिक और तकनीकी प्रगति ने जहां एक ओर रोजगार और जीवन की संभावनाओं को बढ़ाया है तो वहीं दूसरी ओर, सामाजिक दबाव, अत्याधिक अपेक्षाएं और प्रतिस्पर्धा ने मानसिक तनाव और अस्थिरता को भी जन्म दे दिया है। यूनिसेफ की रिपोर्ट की बात करें तो इसमें बताया गया कि भारत में 15 से 24 साल का हर 7 में से 1 व्यक्ति खराब मेंटल हेल्थ से जूझ रहा है। इसमें डिप्रेशन के लक्षण को भी शामिल किया गया है। हैरानी की बात यह है कि सर्वे में शामिल सिर्फ 41फीसदी लोग ही मेंटल हेल्थ की चुनौतियों से निपटने के लिए काउंसलर के पास जाना उचित समझते हैं। ऐसे में आत्महत्या प्रवृत्ति को रोकना वाकई एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि चिकित्सक के पास गए बिना बीमारी का इलाज कैसे संभव होगा। इसका समय रहते हल भी निकालना होगा, क्योंकि आगे आने वाला समय और भी ज्यादा विस्फोटक हो सकता है, जबकि एआई का दखल हर क्षेत्र में होने जा रहा है। इसलिए युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य को दुरुस्त रखने की भी महति आवश्यकता है। यहां मानसिक स्वास्थ्य से तात्पर्य व्यक्ति की भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक स्थिरता से है। यह उसे जीवन की चुनौतियों का सामना करने, सही निर्णय लेने और समाज में योगदान देने में सक्षम बनाता है। महानगरीय चकाचौंध और भौतिकतावाद ने जीवन को अधिक प्रतिस्पर्धी और तनावपूर्ण बना दिया है। कई नई बीमारियां, जो पहले केवल वृद्धावस्था में होती थीं, अब युवाओं और किशोरों में भी देखने का मिल रही हैं। उच्च वेतन और बेहतर करियर के बावजूद युवा अपने जीवन को समाप्त करने का कदम उठाते दिख रहे हैं। यह चिंतनीय बात है। जब हम सोसाइड मामलों को इंटरनेट पर सर्च करते हैं तो छात्र-छात्राओं की आत्महत्या के ढेरों मामले सामने आ जाते हैं। छात्रों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या को लेकर हुए एक खुलासे के अनुसार भारत में आबादी इतनी तेजी से नहीं बढ़ रही, जितनी तेजी से छात्रों के सोसाइड का रेशो बढ़ रहा है। इसलिए देश में छात्रों में सुसाइडल टेंडेंसी का तेजी से बढ़ना वाकई चिंतनीय विषय है। रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में आत्महत्या के मामले हर साल 2 फीसदी की दर से बढ़ रहे हैं, जबकि छात्रों में आत्महत्या के मामलों की दर सालाना 4फीसदी तक बढ़ी है। इन आंकड़ों को सत-प्रतिशत सही नहीं माना जा सकता, क्योंकि छात्रों की सुसाइड के अनेक मामलों को तो दर्ज भी नहीं किया जाता। रिपोर्ट की मानें तो पिछले एक दशक में 24 साल तक के युवाओं की आबादी 58.2 करोड़ से घटकर 58.1 करोड़ हो गई, जबकि इसी दौरान छात्रों की सुसाइड के मामले 6,654 से बढ़कर 13,044 हो गए। इससे समझा जा सकता है कि यह समस्या कितनी गंभीर होती जा रही है। युवाओं द्वारा आत्महत्या करने के कारण तो लगभग सामने आ ही चुके हैं, जिनमें प्रमुख रुप से मानसिक दबाव, अत्याधिक अपेक्षाएं, और जीवन में अचानक आने वाली समस्याओं को संभालने में असमर्थता ज्यादा प्रभावी हैं। अब इनका हल खोजने की आवश्यकता है। इस दिशा में सबसे पहले आधुनिक समाज में व्यक्तिवाद ने पारिवारिक और सामाजिक जुड़ाव को जो कमजोर किया है, उसे दुरुस्त करने की महति आवश्यकता है। इसके बाद सामाजिक अलगाव और अकेलापन युवाओं को निराशा और तनाव का शिकार बनाता है, ऐसे में समाज में अलग-अलग समूह बनाकर लोगों के बीच में अच्छे व सकारात्मक विचारों के साथ जाने और मिलने-जुलने की आवश्यकता भी है। इसमें शक नहीं कि किशोर और युवा महत्त्वाकांक्षाओं और उपभोगवाद में इतने उलझ गए हैं कि वे जीवन के वास्तविक अर्थ और खुशी को नजरअंदाज कर रहे हैं। ऐसे में युवा माता-पिता की पारंपिरक शिक्षाओं और यथार्थ से सामना करने की नसीहतों को वे अनदेखा करते हैं, जिससे उन्हें गलत रास्ते में जाने से कोई रोक नहीं पाता है। ऐसे में परिवार से हटकर मोहल्ले व सोसायटी के जिम्मेदारों को चाहिए कि वे माता-पिता के फर्ज को निभाएं और युवाओं को जीवन की अनिश्चितताओं और संघर्षों के लिए मानसिक रूप से तैयार करें। इन कोशिशों से संभव है कि आत्महत्या जैसी विकराल हो चली समस्या का कुछ समाधान निकल सके। हर घटना और स्थिति को सकारात्मकता नजरिये से देखने और आगे बढ़ने की सोच को बनाने और उसके प्रचार-प्रसार की भी आवश्यकता है। युवाओं को समझाना होगा कि मोबाईल, लेपटॉप और अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उपयोग से बाहर निकलते हुए परिवार, मित्र और समाज से जुड़ाव रखना कितना जरुरी है। अंतत: मानसिक स्वास्थ्य के लिए सामूहिकता और सहानुभूति अति आवश्यक चीज है। इसके लिए वर्क के साथ जीवन में संतुलन स्थापित करना और नियमित व्यायाम, ध्यान और स्वस्थ जीवनशैली अपनाना मानसिक स्वास्थ को बेहतर बनाने में मदद करता है। ये तमाम उपाय ऐसे हैं जो वाकई आत्महत्या की प्रवृत्ति को कम कर सकते हैं, इसलिए समाज को आधुनिक बनाने के साथ युवाओं के बेहतर भविष्य की भी चिंता होनी ही चाहिए। .../ 23 नवम्बर/2024