पिछले कुछ समय से समाज की सामूहिक समझ को आकार देने में व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण बन गई है। कड़ी मेहनत से और तार्किक व वैज्ञानिक आधारों पर हमारे अतीत के बारे में खोज करने वाले इतिहासविदों का मखौल बनाया जा रहा है और वर्चस्वशाली राजनैतिक ताकतें उनके लेखन को दरकिनार कर रही हैं। यह सचमुच चिंता का विषय है कि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी द्वारा जिस सामाजिक सोच को आकार दिया जा रहा है, वह हिंदुत्व या हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रतिगामी राजनैतिक एजेंडा को लागू करने वालों का औजार बन गई है। यह मुद्दा अभी हाल में एक बार फिर तब उठा जब इतिहासकार विलियम डालरेम्पिल, जिनकी कई पुस्तकंं हाल में लोकप्रिय हुईं हैं, ने पत्रकारों के साथ बातचीत में कहा: ”।।।।इसका नतीजा है व्हाट्सएप इतिहास और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी। यह भारतीय अध्येताओं की असफलता है कि वे सामान्य लोगों तक नहीं पहुँच सके हैं।” (इंडियन एक्सप्रेस, अड्डा, 11 नवम्बर 2024) डालरेम्पिल के अनुसार इस कारण समाज में गलत धारणाएं घर कर गईं हैं जैसे, आर्य इस देश के मूल निवासी थे, प्राचीन भारत में संपूर्ण वैज्ञानिक ज्ञान उपलब्ध था, ‘हमारे पास’ पुष्पक विमान था, प्लास्टिक सर्जरी थी, जेनेटिक इंजीनियरिंग थी और न जाने क्या-क्या था। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ही इस सामान्य सामाजिक समझ का स्त्रोत है कि इस्लाम और ईसाईयत विदेशी धर्म हैं, मुस्लिम शासकों ने हिन्दू मंदिर गिराए और हिन्दुओं पर घोर अत्याचार किये और यह भी कि इस्लाम तलवार के बल पर भारत में फैला। यह धारणा भी है कि महात्मा गाँधी हिन्दू विरोधी थे और देश को आज़ादी, गांधीजी के नेतृत्व में चलाये गए राष्ट्रीय आन्दोलन के कारण नहीं मिली। ये गलत धारणाएं बहुसंख्यक लोगों के दिमाग में बैठा दी गईं हैं। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ने इस नैरेटिव को भले की अधिक व्यापकता दी हो, मगर इसे पहले से ही हिन्दू सांप्रदायिक धारा फैला रही थी। इस धारा का मुख्य प्रतिनिधि था आरएसएस और आगे चलकर उसके परिवार के विभिन्न सदस्य। आज़ादी के आन्दोलन के दौरान सबसे वर्चस्वशाली नैरेटिव थी राष्ट्रीय आन्दोलन से उपजी समावेशी सोच। यह नैरेटिव कहता था कि भारत एक निर्मित होता, आकर लेता राष्ट्र है। इसके विपरीत, हिन्दू राष्ट्रवादी नैरेटिव, जो उस समय हाशिये पर था, कहता था कि भारत हमेशा से एक हिन्दू राष्ट्र रहा है। दूसरी ओर, मुस्लिम राष्ट्रवादियों का कहना था कि आठवीं सदी में सिंध में मुहम्मद-बिन-कासिम का शासन स्थापित होने के बाद से ही भारत एक मुस्लिम राष्ट्र है। सांप्रदायिक इतिहास लेखन ब्रिटिश शासनकाल में शुरू हुआ। अंग्रेज़ शासकों ने ऐसी पुस्तकों को प्रोत्साहित किया जो भारत के अतीत को तीन कालों में विभाजित करती थीं - हिन्दू, मुस्लिम और ब्रिटिश। ऐसी ही एक पुस्तक थी जेम्स मिल की ‘हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया”। इलियट एवं डाउसन का बहु-खंडीय ग्रन्थ “हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया एज़ टोल्ड बाय हर हिस्टोरियंस” भी इसी तर्ज पर लिखी गई थी। ये दोनों पुस्तकें इस धारणा पर आधारित थीं कि राजा और बादशाह, अपने-अपने धर्मों का प्रतिनिधित्व करते थे। हिन्दू सांप्रदायिक इतिहास लेखन की शुरुआत आरएसएस की शाखाओं में होने वाले बौद्धिकों से हुई। उसे विभिन्न चैनलों द्वारा फैलाया गया। इनमें शामिल थे सरवती शिशु मंदिर, एकल विद्यालय और संघ के गैर-आधिकारिक मुखपत्र आर्गेनाइजर एवं पाञ्चजन्य। लालकृष्ण अडवाणी के जनता पार्टी सरकार में केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनने के बाद इस नैरेटिव ने सरकारी तंत्र में घुसपैठ कर ली और इसके प्रसार के लिए सरकारी मशीनरी का उपयोग किया जाने लगा। अब तो ऐसा लग रहा है कि आरएसएस हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था को ही बदल देना चाहता है। इतिहास, सामाजिक विज्ञानों और अन्य विषयों की पुस्तकों को नए सिरे से लिखा जा रहा है। आरएसएस से जुड़ी एक संस्था ‘शिक्षा बचाओ आन्दोलन’ के दीनानाथ बत्रा द्वारा लिखित नौ पुस्तकों का गुजरती में अनुवाद कर उन्हें गुजरात के 42,000 स्कूलों में लागू कर दिया गया है। भाजपा के साथी कॉर्पोरेट घरानों (अदानी, अंबानी) ने मीडिया पर लगभग पूरा कब्ज़ा कर लिया है और नतीजे में मीडिया का अधिकांश हिस्सा भाजपा की गोदी में बैठा नज़र आ रहा है। भाजपा अपने आईटी सेल को मजबूत कर रही है और व्हाट्सएप के ज़रिये अपने नैरेटिव को प्रसारित कर रही है। इस सबका बढ़िया विश्लेषण स्वाति चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक “आई वाज़ ए ट्रोल” में किया है। गंभीर और निष्पक्ष इतिहासकारों ने सामान्य पाठकों के साथ-साथ, स्कूली पाठ्यपुस्तकों के लिए भी लेखन किया है। इनमें प्राचीन भारतीय इतिहास पर रोमिला थापर की पुस्तकें सबसे लोकप्रिय हैं। इरफ़ान हबीब ने मध्यकालीन इतिहास पर महत्वपूर्ण काम किया है और बिपिन चन्द्र की “भारत का स्वाधीनता संग्राम” के कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। सन 1980 के दशक तक इन इतिहासकारों द्वारा लिखित पुस्तकें, एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम का हिस्सा थीं। भाजपा ने 1998 में सत्ता में आने के बाद से शिक्षा के भगवाकरण का अभियान शुरू किया। सन 2014 में पार्टी अपने बल पर केंद्र में सत्ता में आ गई, जिसके बाद इस अभियान ने और जोर पकड़ लिया। अब इस छद्म इतिहास और पौराणिक कथाओं को ‘इतिहास’ का दर्जा देने की कवायद जोर-शोर से चल रही है। आम लोगों की धारणाओं और सोच को आकार देने में इतिहासविदों की सीमित भूमिका होती है। सत्ताधारी या वर्चस्वशाली राजनैतिक ताकतों की सोच, सामाजिक धारणाओं के निर्माण में सबसे महती भूमिका निभाती है। भाषाविद और मानवाधिकार कार्यकर्ता नोएम चोमोस्की ने “सहमति के निर्माण” की अवधारणा प्रस्तावित की है। इस अवधारणा के अनुसार, सरकारें जो करना चाहतीं हैं - जैसे वियतनाम या इराक पर हमला - उसके लिए वे जनता में ‘सहमति का निर्माण’ करती हैं। लोगों को यह समझाया जाता है कि यह करना समाज और उनके हित में है। इतिहासविद चाहे जो भी कहते रहे, सच छिप जाता है और राज्य या वर्चस्वशाली राजनैतिक विचारधारा अपनी ज़रुरत के हिसाब से सामान्य समझ को आकार देती है। व्हाट्सएप के जरिये समाज में फैलाई जा रही अतार्किक बातों पर विलियम डालरेम्पिल की चिंता स्वाभाविक है। मगर असली मुद्दा यह है कि दक्षिणपंथी राजनीति का बोलबाला बढ़ने के साथ ही, उसने बहुत चतुराई से अपना राजनैतिक एजेंडा लागू करना शुरू कर दिया है। वे एक ऐसे इतिहास का निर्माण कर रहे हैं जो न तार्किक हैं और न तथ्यात्मक। भारत में इतिहासविदों को निशाना बनाया जा रहा है। एक समय भाजपाई रह चुके अरुण शौरी ने एक पुस्तक लिखी थी जिसका शीर्षक था “द एमिनेंट हिस्टोरियंस”। इसमें ऐसे इतिहासविदों को निशाना बनाया गया था जिनकी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा है और जिन्हें उनके साथी सम्मान की निगाहों से देखते हैं। आज भी ऐसे कई लोग हैं जो इतिहास के तोड़े-मरोड़े गए संस्करण का प्रचार करते हैं और हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा से असहमत व्यक्तियों पर कटु हमले करते हैं। हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रचार के लिए जो तंत्र पहले से मौजूद था, उसमें अब व्हाट्सएप भी जुड़ गया है। तार्किक और वैज्ञानिक इतिहास लेखन करने वालों और आम जनता के बीच सेतु का काम करने के लिए सामाजिक और राजनैतिक समूहों को आगे आना होगा। तभी हम यह सुनिश्चित कर सकेंगे कि आम जनों की समझ और धारणाएं, समावेशिता, वैज्ञानिक सोच और भारतीय राष्ट्रवाद के मूल्यों पर आधारित हो। अगर अपने पेशे के प्रति प्रतिबद्ध इतिहासविद, स्कूलों के लिए या आम पाठकों के लिए पुस्तकें लिखते हैं, तो हमें उनका आभारी होना चाहिए। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की सफलता के पीछे सांप्रदायिक राजनीति है। यह इतिहासकारों के असफलता नहीं है। (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया। लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं) ईएमएस / 20 नवम्बर 24