लेख
08-Sep-2024
...


शिक्षा का शाब्दिक अर्थ है सीखने और सिखाने की क्रिया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि किसी भी समाज में चलने वाली वह निरंतर प्रक्रिया जिसका उद्देश्य इंसान की आन्तरिक शक्तियों का विकास करना और उसके व्यवहार में सुधार लाना है। शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य ज्ञान और कौशल में वृद्धि कर मनुष्य को योग्य नागरिक बनाना है।गौरतलब है कि आजादी के बाद भारत में पहली शिक्षा नीति सन 1986 में बनाई गई थी जो मुख्यतः लॉर्ड मैकाले की अंग्रेजी प्रधान शिक्षा नीति पर आधारित थी। इसमें सन 1992 में कुछ संशोधन भी किए गए किंतु इसका ढांचा मूलतः अंग्रेजी माध्यम शिक्षा पर ही केंद्रित रहा।आज समय के साथ हमें यह महसूस हुआ कि 1986 की वह शिक्षा नीति में कुछ खामियां हैं इसके तहत बच्चा ज्ञान तो हासिल कर रहा है लेकिन भारत की संस्कृति को क़ोई महत्व नहीं मिलता। अतः इन कमियों को दूर करने के लिए नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लाने की आवश्यकता पड़ी।नवीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, 21वीं शताब्दी की ऐसी पहली शिक्षा नीति है, जिसका लक्ष्य हमारे देश के विकास के लिए आने वाले आवश्यकता को पूरा करना है। यह नीति भारत की परंपरा और उसके सांस्कृतिक मूल्यों को बरकरार रखते हुए 21वीं सदी की शिक्षा के लिए आकांक्षात्मक लक्ष्य, जिसके अंतर्गत शिक्षा व्यवस्था उसके नियमों का वर्णन सहित सभी पक्षों के सुधार और पुनर्गठन का प्रस्ताव रखता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति प्रत्येक व्यक्ति में निहित रचनात्मक क्षमता के विकास पर जोर देती है। यह नीति इस सिद्धांत पर आधारित है कि शिक्षा से ना केवल साक्षरता, उच्च स्तर की तार्किक और समस्या समाधान संबंधित संज्ञानात्मक क्षमताओं का विकास होना चाहिए बल्कि नैतिक सामाजिक और भावनात्मक स्तर पर भी व्यक्ति का विकास होना चाहिए।स्कूली और उच्च शिक्षा में छात्रों के लिये संस्कृत और अन्य प्राचीन भारतीय भाषाओं का विकल्प उपलब्ध होगा परंतु किसी भी छात्र पर भाषा के चुनाव की कोई बाध्यता नहीं होगी, और वैदिक भाषा का अध्ययन भारत की संस्कृति हेतु अवश्य ही जोर दिया जायेगा दरअसल वैदिक भाषा में संधि के नियम वैकल्पिक थे। बहुत से स्थानों पर संधि नहीं होती थी। किन्तु लौकिक संस्कृत में संधि के निश्चित नियम बन गए। वैदिक भाषा में शब्दों के उच्चारण में बहुत से स्थलों में स्वरभक्ति होती थी, जैसे स्व, सुवः, वरेय, वरेणिय, त्र्यम्बक, त्रियम्बक। संस्कृत भाषा में ऐसी स्वरभक्ति नहीं होती। वैदिक भाषा में सुबन्त और तिगन्त शब्दों के अनेक रूप होते थे। संस्कृत भाषा में इन रूपों की संख्या कम हो गई। उदाहणार्थ आकारात्नशब्दों के प्रथमा बहुवचन में वैदिक भाषा में प्रियाः- प्रियासः, देवाः - देवासः, जानाः जैसे दो दो रूप होते थे, किन्तु संस्कृत भाषा में एक ही रूप शेष रहा। दूसरा रूप नष्ट हो गया। इसी प्रकार अकारान्त शब्दों में तृतीया बहुवचन में प्रियैः-प्रियेमिः, स्थिरैः-स्थिरेमिः, कणैः-कणेमिः इत्यादि दो दो रूप होते हैं, किन्तु संस्कृत में प्रथम रूप ही शेष रहे। उसी प्रकार नपुंसक लिंग में प्रथमा, द्वितीया बहुवचन में संस्कृत में जो ‘नि- प्रत्यय लगता है जैसे विश्वानि, फलानि, तानि, मधूनि, यह वैदिक भाषा में विकल्प से लुप्त भी हो जाता है, जैसे विश्वाः, फलाः, इत्यादि। संस्कृत भाषा में विकल्प से अकारान्त रूप से भी मिलता है जैसे राजानौ-राजाना, अश्विनौ-अश्विना, महान्तौ-महान्ता। वैदिक भाषा में लट् लकार का प्रयोग होता था जो रचना की दृष्टि से बहुत जटिल था। उदाहरणार्थ भू धातु के प्रथम पुरूष एकवचन में निम्नलिखित रूप हो सकते थे, भवति, भवात-भवितात, भाविषात, भाविष्यति आदि। इस जटिलता के कारण ही संस्कृत भाषा में इस लकार को समाप्त कर दिया।लौकिक भाषा में परस्मैपद और आत्मनेपद के प्रत्ययों के निश्चित नियम हैं। किन्तु वैदिक भाषा में इनकी अत्यवस्था थी। इसी प्रकार वैदिक भाषा में पुरूष, वचन, लिंग, विकारण, विभत्ति इत्यादि त्याकरणिक को रियों में विकल्प होते थे, जैसे भवादि।आशा है की नवीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020,में वैदिक भाषा को जानने का अवसर प्राप्त होगा जिससे भारत की संस्कृति को पहचानेगें। ईएमएस / 08 सितम्बर 24