लेख
07-Sep-2024
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मौत की सजा हमेशा से विवादों में रही है। इस पर एक बार फिर बहस होने लगी है। मृत्युदंड के मुद्दे पर समाज दो धड़ों में बंटा हुआ है। एक वे लोग हैं, जो इसे न्याय मानते हैं, दूसरी ओर वे लोग हैं, जो इसे प्रतिशोध मानते हैं। मृत्युदंड की सजा की वकालत करने वाले यह मानकर चलते हैं, इससे अपराधों में कमी आएगी। जिन देशों में मृत्युदंड दिया जाता है। वहां पर भी अपराधों में कोई कमी नहीं होती है। वहां पर भी समय के साथ अपराध बढ़ रहे हैं। एक पक्ष इसे मानवाधिकारों का उल्लंघन मानता है। मौत की सजा अपराधियों को सुधरने का मौका नहीं देती है। यह सिर्फ एक प्रतिशोधात्मक कदम है। जो अपराधी उत्तेजना या क्षणिक आवेश में अपराध का कारण बनता है। वह अपराधी का मूल स्वभाव नहीं होता है। ऐसी स्थिति में उसे सुधरने का मौका दिया जाना ही न्याय संगत होता है। बड़ी संख्या में लोग तर्क देते हैं, जघन्य अपराधों के लिए मौत की सजा जरूरी है। मृत्युदंड का भय अपराधियों में बना रहे, समाज में कानून का सम्मान हो। इससे अपराध कम होंगे। सवाल यह है, कि मृत्युदंड की सजा वाकई अपराध को रोकने में प्रभावी है? आंकड़े बताते हैं, कि उन देशों में जहां मौत की सजा दी जाती है। वहां अपराध की दर में कोई कमी नहीं आई है। इससे स्पष्ट है, कि मृत्युदंड की सजा भी अपराधों को रोकने में प्रभावी नहीं है। जितना मृत्युदंड के समर्थक कहते हैं। मानवाधिकारों के समर्थक मृत्युदंड को अमानवीय मानते हैं। उनका कहना है कि किसी भी स्थिति में इंसान को जीवन से वंचित करने का अधिकार किसी के पास नहीं होना चाहिए। न्यायिक गलतियों के मामले में, मृत्युदंड की सजा और भी खतरनाक साबित हो जाती है। एक बार यदि गलती से भी मृत्युदंड की सजा दे दी गई, तो उसे वापस नहीं लिया जा सकता है। कई उदाहरण हैं, जहां निर्दोष लोगों को मौत की सजा दी गई, जो बाद में न्यायालयों में गलत प्रमाणित हुईं। हाल ही में कन्हैया लाल की मौत के आरोपी को हाईकोर्ट ने जमानत दी है। केंद्रीय जांच एजेंसी एनआईए ने उसे गलत तरीके से आरोपी बनाकर जेल भेज दिया था। यदि उस घटना के तुरंत बाद उसे तत्काल न्याय के नाम पर मृत्यु दंड दे दिया जाता, तो क्या उसके साथ न्याय होता, क्या इस तरह से न्यायिक व्यवस्था को बेहतर और विश्वसनीय बनाकर रखा जा सकता है? मौत की सजा के मुद्दे पर बहस जटिल और गहरी है। यह बहस समाज के नैतिक और कानूनी ढांचे के बारे में महत्वपूर्ण सवाल उठाती है। हमारा लक्ष्य अपराधियों को सुधारना है, या उनसे बदला लेना? इसके बारे में सोचना जरूरी है। अपराधों को कम करना है। अपराधों को नियंत्रित करने के लिए और कौन से उपाय हो सकते हैं। इस सवाल का उत्तर खोजने पर ही मौत की सजा के प्रति समाज के दृष्टिकोण को बदला जा सकता है। आध्यात्मिक दृष्टि से बात करें, तो जन्म और मृत्यु पर ईश्वर का अधिकार है। इसमें जब मानवीय हस्तक्षेप बढ़ता है। तो हम ईश्वर के अधिकारों की अवहेलना कर, मनमानी करना शुरू कर देते हैं। अपराधों पर नियंत्रण नैतिकता के आधार पर ही हो सकता है। यदि हम नैतिक हैं, तो अपराध करने से खुद ही अपने आप को रोकते हैं। दंड के कारण कभी अपराधों को रोका नहीं जा सकता है। मानव जीवन में क्षणिक आवेश या परिस्थितिजन्य कई बार ऐसे अपराध हो जाते हैं। जो सभ्य समाज में स्वीकार नहीं किये जा सकते हैं। जिसके द्वारा अपराध हुआ है, वह अपराधी का मूल स्वभाव नहीं था। अपराधों पर नियंत्रण रखने के लिए सामाजिक व्यवस्था में दंड का प्रावधान बहुत जरूरी है। दंड इस तरह का होना चाहिए, जिसमें अपराधी को सुधरने का मौका भी हो। उसे दंड मिलेगा, तभी बाकी के लोग अपराध करने से डरेंगे। अपराध करने वाला केवल अपराधी ही नहीं होता है, बल्कि उसमें बहुत से ऐसे गुण होते हैं, जिसके कारण वह समाज का बड़ा भला भी कर सकता है। आदतन अपराधी और परिस्थिति जन्य क्षणिक आवेश में अपराध हो जाने पर, अपराधी को सुधरने का मौका देने से सभ्य समाज का निर्माण संभव है। जेलों का निर्माण इसलिए भी किया जाता है। जहां पर अपराधी को सुधरने का मौका दिया जाए। जिस अपराधी को दंडित किया गया है, वह अपने मानव जीवन में परिवार और समाज के लिए मनुष्य जीवन के कर्म करके कुछ अच्छा भी कर सकता है। अपराध को लेकर उसमें अपराध के प्रति बोध है। दंड के रूप में उसे प्रायश्चित करने का मौका मिलना ही चाहिए। किसी भी जघन्य अपराध में तत्काल फांसी देकर उसका जीवन समाप्त कर देना, एक तरह का प्रतिशोध है। इसे न्याय व्यवस्था का अंग नहीं माना जा सकता है। ईएमएस / 07 सितम्बर 24