कुछ माह में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। 2024 में लोकसभा चुनाव होना है। चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर लगातार सवाल उठने लगे हैं।आम लोगों के मन में यह धारणा बनने लगी है, क्या भारत में निष्पक्ष चुनाव संभव है। चुनाव आयोग की भूमिका क्या निष्पक्ष है।चुनाव में सत्ता पक्ष की भूमिका मतदाताओं को प्रभावित कर रही है? चुनाव के पहले जिस तरह रेवड़ियां बाटी जा रही है। उसको लेकर अब यह चर्चा जन-जन के बीच होने लगी है। चुनाव के दौरान जिस तरह से सत्ता सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग कर रही है, उसको लेकर भी आमजन आश्चर्यचकित हैं। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चुनाव इलाहाबाद हाईकोर्ट ने केवल इसलिए रद्द कर दिया था, कि इंदिरा गांधी ने जिस मंच से चुनावी भाषण दिया था। वह मंच उत्तर प्रदेश के लोक निर्माण विभाग द्वारा तैयार गया था। उनके मंच में यशपाल कपूर जो उनके निजि सचिव थे। वह मंच पर मौजूद थे। इन दो कारणों से इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए न केवल इंदिरा गांधी को हाईकोर्ट में गवाही के लिए तलब किया। वरन उनका चुनाव भी अवैध घोषित कर दिया। हाईकोर्ट के निर्णय ने भारतीय राजनीति को बदलकर रख दिया।भारत में पहली बार आपातकाल लगा। जिसकी चर्चा आज भी होती है। टीएन सेशन 12 दिसंबर 1990 में मुख्य चुनाव आयुक्त बने। उन्होंने 6 साल का कार्यकाल पूरा किया। निष्पक्ष चुनाव के लिए उन्हें जो समझ में आया, वह उन्होंने किया। वह कभी केंद्र सरकार और राजनीतिक दलों के प्रभाव में नहीं आए। चुनाव पारदर्शी बनाने के लिए, चुनाव की गड़बड़ियों को रोकने के लिए, उन्होंने 1993 में पहली बार फोटो युक्त मतदाता परिचय पत्र अनिवार्य किया। अधिसूचना जारी होने के बाद से वह निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए खुद ही नियुक्तियां करते थे। सेना और पुलिस बल को चुनाव आयोग ही तैनात करता था। इसमें भी केंद्र सरकार की मनमर्जी नहीं चली। मतदान के दौरान शिकायत मिलने पर मतदान रोककर दोबारा मतदान कराने, सभी राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिये अवसर दिये। इसके लिए उन्होंने प्रिंट मीडिया,आकाशवाणी, दूरदर्शन इत्यादि को भी आचार संहिता में लपेटकर नियंत्रित करने का काम किया। चुनाव के दौरान कोई भी घोषणाएं सरकार न कर पाए, इस पर भी ध्यान रखा। चुनाव आयुक्त टीएन सेशन का सरकार और राजनेताओं पर इतना खौफ हो गया था। उनके खिलाफ महाभियोग लाने का प्रयास किया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने महाभियोग के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। जनता के बीच टीएन सेशन बड़े लोकप्रिय हुए। सरकार को लग रहा था,कि महाभियोग लाया गया तो जनता नाराज हो सकती है। सरकार ने टीएन सेशन को नियंत्रित करने के लिए तीन चुनाव आयुक्त बनाए। जीवीजी कृष्णमूर्ति और एमएस गिल को बराबर के अधिकार दिए गए। सेशन इसके विरोध में सुप्रीम कोर्ट गए। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की कार्यवाही पर मोहर लगाई थी। इसके बाद भी टीएन सेशन निष्पक्ष चुनाव कराने में पूर्णत: सफल रहे। वह पहले ऐसे चुनाव आयुक्त थे। जिन्होंने निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए कभी कोई समझौता तथा दबाव स्वीकार नहीं किया। जो दो नए चुनाव आयुक्त बनाए गए थे। वह भी उनके काम में दखलंदाजी नहीं कर पाए। वर्तमान में चुनाव आयोग की जो कार्य प्रणाली है। लोग टीएन सेशन के कार्यकाल से उसकी तुलना करने लगे हैं। अब चुनाव आयोग है या नहीं, इसकी चर्चा होती है। सरकार के निर्देश पर ही चुनाव हो रहे हैं। चुनाव के कुछ महीने पहले से सरकारी खजाने से सरकार रेवडियां बांटने लगती है। सरकारी खर्चे से योजनाओं का प्रचार-प्रसार किया जाता है। स्टार प्रचारकों के नाम पर सरकारी खर्च पर चुनाव को प्रभावित किया जाता है। चुनाव के दौरान सरकारी धन का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग होता है। 2014 के बाद से मीडिया भी, सरकार के इशारे पर कवरेज करता है। विपक्ष को मीडिया में कोई स्थान नहीं मिल रहा है। विपक्ष की आवाज जनता तक नहीं पहुंच रही है। इन सब स्थितियों को देखते हुए, यह कहा जाने लगा है, कि भारत में निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं रहे। मतदाताओं को खुलेआम प्रलोभन दिया जाता है। मतदाताओं को खुलेआम धमकाया जाता है। मीडिया पक्षपाती हो गया है। आकाशवाणी और दूरदर्शन भी निष्पक्ष नहीं रहे। निजी चैनल उद्योग पतियों के कब्जे में हैं। उन पर चुनाव आयोग का कोई नियंत्रण नहीं है। सरकार यदि यह मानती है, कि सत्ता और मुफ्त की रेवड़ी उसे चुनाव जिता सकती है। तो यह सरकार का भ्रम है। पिछले वर्षों में कई ऐसे विधानसभा के चुनाव हुए हैं। जहां सत्ता ने मुफ्त की रेवड़ी भी बांटी,मतदाताओं को बड़े-बड़े प्रलोभन दिए। उसके बाद भी सत्तारूढ़ दल अपनी सत्ता को नहीं बचा पाया। हिमाचल और कर्नाटक प्रदेश के चुनाव परिणाम ताजा उदाहरण हैं। ईवीएम की भूमिका पर भी लगातार प्रश्न चिन्ह लग रहे हैं। चुनाव आयोग सरकार के सामने बेबस नजर आता है। ऐसा लगता है, कि चुनाव आयोग की भूमिका केवल चुनाव की अधिसूचना जारी करने और चुनाव की तारीखें घोषित कर चुनाव परिणामों को घोषित करने तक सीमित हो गई है। चुनाव आयोग का नियंत्रण चुनाव कराने वाली एजेंसियों पर नहीं रहा। आशा की एकमात्र किरण आम जनता है,जो रेवड़ी भी खा लेती है,और मन माफिक मतदान करती है। सरकार ने चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए जो नए नियम बनाए हैं। यदि वह नियम लागू हो गए, तो चुनाव आयोग की निष्पक्षता कार्य संभव नहीं होगा। सरकार का दबाव चुनाव आयोग पर बढ़ जाएगा। जब टीएन शेषन से नाराज होकर नेता महाभियोग लाने की तैयारी कर रहे थे। तब तत्कालीन नरसिंहराव सरकार की हिम्मत नहीं बनी थी। चुनाव आयोग टीएन सेशन को हटाने के लिए महाभियोग लाया जाए। मतदाताओं का विश्वास निष्पक्ष चुनाव और चुनाव आयोग पर ही निर्भर करता है। सरकार को भी यह बात समय रहते समझना होगी। चुनाव आयोग को निष्पक्ष चुनाव कराने की जिम्मेदारी लेनी होगी। अन्यथा लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप को बनाए रखना बहुत मुश्किल होगा। एसजे / 27 सितम्बर 2023