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संयम और अध्यात्म का संदेश देता चौमासा (लेखक- राकेश कुमार वर्मा /ईएमएस)
23/06/2022
भास्कर प्रधान इस उपमहाद्वीप की ऋतुओं ने विभिन्न संस्कृतियों को समृद्ध किया है। ऋतुचक्रों का समष्टि पर पड़ने वाले प्रभाव विविध संप्रदायों से उत्पन्न उत्सवों की स्वीकारोक्ति है। सूर्य जब चन्द्र के रोहिणी नक्षत्र में गमन करता है तब 9 दिन भीषण गर्मी पड़ती है। यह वह कालखण्ड है जब वसुधा सृजन के लिए गर्भवती की भांति भ्रूण को कलात्मक आकृति देने के लिए मंथर लय का अनुशीलन करती है। मृगशिरा की वृष्टि से उल्लासित प्रसववेदना धन-धान्य की अभिवृद्धि और अंतर्मन में अंकुरित अध्यात्म के आत्मवैभव की अनुभूति से आवृत होती है। तुलसीदास कहते हैं कि ‘ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी॥’ अर्थात उपकारी की संपत्ति उसी प्रकार आनंदित कर रही है जैसे वनस्पतियों से युक्त पृथ्वी। जैन परंपरा में अषाढ़ी पूर्णिमा से शुरू होकर कार्तिक पूर्णिमा तक चलने वाला मुनियों का स्थिर चातुर्मास सुखी, शांत और पवित्र जीवनकला का प्रशिक्षण देता है। यह ऋतु ज्ञान, ध्यान, और स्वाध्याय योग में आत्मा को अवस्थित होने का दुर्लभ अवसर है। वर्षा से जलमग्न धरती हमे नये मार्गों की ओर प्रेरित करती है, जिससे नये सरोकारों का अभ्युदय होता है।
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें॥
-जैसे विद्या पाकर विद्वान् नम्र हो जाते हैं उसी प्रकार बादल पृथ्वी के समीप (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं । बूँदों की चोट पर्वत इस प्रकार सहन कर रहे हैं, जैसे संत दुष्टों के अत्याचार सहते हैं।
बरषा रितु रघुपति भगति, तुलसी सालि सुदास। रामनाम बर बरन जुग, सावन भादव मास॥
श्री रघुनाथ जी की भक्ति वर्षाऋतु है, उत्तम सेवकगण (प्रेमी भक्त) धान हैं औरराम नाम के दो सुंदर अक्षर।सावनभादों के महीने हैं (अर्थात् जैसे वर्षाऋतु के श्रावण, भाद्रपद- इन दो महीनो में धान लहलहा उठता है, वैसे ही भक्ति पूर्वक श्री राम नाम का जप करने से भक्तों को अत्यंत सुख मिलता है।
हालांकि संस्कृति के बाजारीकरण से हुए यंत्रीकरण में इसकी प्रासंगिता समाप्त हो गई है जो संवेदनशील विचारों से मुक्त जीवनशैली की ओर प्रेरित करती है। विज्ञान, सूचना और प्रौद्ययोगिकी के विकास से प्रभावित हमारे नैतिक मूल्यों से प्रक़ति के उपहारजनित धरोहर यथा वनस्पति, जलवायु सहित चराचर जगत को अनुभव करने की दृष्टि बदल दी है। जहॉं ये तत्व कभी हमारी ईश्वरीय सत्ता के प्रतीक थे शोषणात्मक वृत्ति का स्रोत बन गये हैं। इनसे सरोकार रखने रखने वाले को हेय दृष्टि से देखा जाता है। इसका एक कटु पहलू यह है कि पारंपरिक जीवन में जटिलता के साथ प्राप्त संसाधनों के प्रति जहॉं सम्मान और मूल्य की भावना निहित थी अब शासकीय नियंत्रण में भुगतान के साथ ही वह नैतिक मानदण्ड खंडित हो गया। सरकार के लिए तो यह आय का एक अच्छा स्रोत बन गया लेकिन इससे हमारे नैतिक मूल्य बुरी तरह प्रभावित हुए हैं जिनका दुष्परिणाम प्रत्येक धड़कन के साथ चुकाने को विवश हैं।
ऋतुयें हमारे आहार-विहार को प्रभावित करती है। किसी ऋतु में कोई दोष बढ़ता है तो कोई शांत होता है। ऋषियों विद्वानों ने इन ऋतुओं में होने वाले प्रकोप, दोषवृद्धि का अध्ययन कर तदानुसार आचरण कर स्वस्थ्य रहने के नियम बताये। जैसे संक्रांति पर सूर्य के दक्षिणायन में अयन शब्द का अर्थ गति है अर्थात जब सूर्य की गति दक्षिण की ओर होती है तो उसकी किरणों के मंद और सौम्य होने से वातावरण में रस(जलीय तत्व) में वृद्धि होती है, इसे विसर्ग काल कहते हैं। सौम्य अवस्था में होने के कारण सूर्य और चन्द्र वातावरण में रसा का संचार करते हैं, जिसमें हवायें आदान काल की तरह शुष्क, गर्म और रूखी नहीं होतीं। वातावरण में चंद्रमा के सौम्य गुणों की प्रधानता होती है और ताप कम होता है। हवाओं, बादलों और वर्षा में ठण्डक रहती है। वातावरण में शीतलता के कारण औषध्यिों और खाद्य पदार्थों में स्निग्धता आ जाती है, इससे प्राणियों की शारीरिक शक्ति में वृद्धि होती है। चैत्र से भाद्र पक्ष में हुए उत्तरायण में सूर्य प्रचण्ड सूर्यरस(जलीय तत्व) का आदान (ग्रहण) करता है। सूर्य की किरणें प्रखर और हवाएं तीव्र, गर्म और रुक्ष होती हैं, जो पृथ्वी के जलीय अंश को सोख लेती हैं। इसका प्रभाव औषधियों के साथ जीवों की काया पर पड़ता है जिससे शक्ति क्षीण होने लगती है और हम दुर्बलता का अनुभव करते हैं। इस अवधि में शिशिर, बसंत और ग्रीष्म ऋतुएं होती हैं। विसर्ग और आदान काल के असर से आदान काल के अंत और विसर्ग के शुरू में दुर्बलता अधिक रहती है। इन दोनो कालों के बीच के समय में मनुष्यों में बल भी मध्यम स्थिति में रहता है। विसर्ग काल के अंत एवं आदान काल के आरंभ में शरीर में बल की प्राप्ति अधिक होती है। अन तथ्यों के आधार पर ही आयुर्वेद ने ऋतुओं के अनुसार खान-पान की विविधता का वर्णन किया है। शिशिर ऋतु स्वास्थ्य के लिए उत्तम मानी गई है। इस समय शरीर अधिक बलयुक्त होता है । दिन छोटे तथा रातें लंबी होने के कारण शरीर को आराम करने के साथ भोजन के पाचन के लिए अधिक अनुकूलता मिलती है। इन दोनो कारणों से सर्दी में अधिक पुष्टि मिलती है तथा भूख भी अधिक लगती है। हेमत और शिशिर ऋतु में मौसम प्राय: एक समान होता है। हेमंत ऋतु में सूर्य दक्षिणायन होता है अत: औषधियों एवं आहार-द्रव्यों में स्निग्धता, मधुरता और पौष्टिकता होती है। इस ऋतु में शीर में दोषों का संचय अल्प मात्रा में होता है परंतु शिशिर ऋतु में सूर्य के उत्तरायण होने से आदान काल के कारण वातावरण में रुक्षता और शीतलता होती है। वनस्पतियों में भी शीतलता, भारीपन और मधुरता होने से शीर में कफ का संचय होता है अत: शिशिर ऋतु में भी उपर्यक्त आहार-विाहर करते हुए ठंड से बचास रखना चाहिये, शीतल हल्के और रुक्ष पदार्थें का सेवन एवं उपवास नहीं करना चाहिये। जबकि वर्षाकाल में जठराग्नि (पाचन शक्ति) कमजोर और मंद हो जाती है इसलिए वात् पित्त व् कफ रोग बढ़ जाते है। वर्षा ऋतु में अनेक जीवों सहित विषाक्त कीटाणु उत्पन्न होते हैं जो बीमारियां फैलाते है। ऋतु आहार के बारे में कवि ‘घाघ’ कहते हैं :-
सावन हर्रै भादों चीत। क्वार मास गुड़ खायउ मीत।।
कार्तिक मूली अगहन तेल। पूस में करै दूध से मेल।।
माघ मास घिउ खींचरी खाय। फागुन उठि के प्रात नहाय।।
चैत मास में नीम बेसहनी। बैसाके में खाय जड़हनी।।
जेठ मास जो दिन में सोवै। ओकर जर असाढ़ में रोवै।।
अर्थात् सावन मास में हरड, भादों मास में चिरायता, क्वार मास में गुड़ कार्तिक में मूली, अगहन में तेल, पौष मास में दूध, माघ मास में घी और खिचड़ी, फागुन मास में प्रातः स्नान, चैत मास में नीम का सेवन, वैशाख मास में जड़हन (अगहन में पकने वाला धान) का भात खाना चाहिए जेठ मास में दिन में सोने वाले व्यक्ति को आषाढ़ में ज्वर नहीं होता और वह स्वस्थ रहता है। इसके साथ उबले जल सहित सेब, अनार, नासपाती जैसे मौसमी फल टमाटर सूप, अदरक, प्याज, लहसन, बेसन, हल्दी वाला दूध, देसी चाय पुराना चावल, गेहूं, मक्का, मुंग, अरहर की दाल खा सकते हैं। जबकि हरी पते वाली सब्ज़िया रसदार फल बैंगन, चकुंदर, खीरा, ककड़ी फ़ास्ट फूड, मिठाई मास मदिरा, ठंडी-बासी खाद्य, आइस क्रीम कोल्ड ड्रिंक्स से बचना चाहिये क्योंकि इस ऋतु में यह कुपथ्य है।
भुइयाँ खेड़े हर हो चार, घर हो गिहथिन गऊ दुधार।
अरहर दाल, जड़हन का भात, गागल निबुआ औ घिउ तात।।
खाँड दही जो घर में होय, बाँके नयन परोसै जोय,
कहैं घाघ तब सबही झूठ, उहाँ छोड़ि इहँवै बैकूंठ।
अर्थात् यदि खेत गाँव के पास हो, चार हल की खेती हो, घर में गृहस्थी में निपुण स्त्री हो, दुधारू गाय हो, अरहर की दाल और जड़हन (अगहन में पकने वाला धान) का भात हो, रसदार नींबू और गर्म घी हो, दही और शक्कर घर में हो और इन सब चीजों को तिरछी दृष्टि से परोसने वाली पत्नी हो, तो घाघ कहते हैं कि पृथ्वी पर ही स्वर्ग है। इस सुख के अतिरिक्त अन्य सारे सुख व्यर्थ हैं।
जाको मारा चाहिए, बिन लाठी बिन घाव। वाको यही बताइए, घुइयाँ पूरी खाव।।
अर्थात् यदि किसी व्यक्ति को लाठी या हथियार के बिना मारना चाहते हैं तो उसे धुइयाँ (अरुई) और पूड़ी खाने की सलाह देना चाहिये क्योंकि, यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक (विषतुल्य) होती हैं।
चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठे पन्थ असाढ़े बेल।
सावन साग न भादों दही, क्वार करेला न कातिक मही।।
अगहन जीरा पूसे धना, माघे मिश्री फागुन चना।
ई बारह जो देय बचाय, वहि घर बैद कबौं न जाय।।
अर्थात् यदि व्यक्ति चैत में गुड़, बैसाख में तेल, जेठ में यात्रा, आषाढ़ में बेल, सावन में साग, भादों में दही, क्वाँर में करेला, कार्तिक में मट्ठा अगहन में जीरा, पूस में धनिया, माघ में मिश्री और फागुन में चना, ये वस्तुएँ स्वास्थ्य के लिए कष्टकारक होती हैं। जिस घर में इनसे बचा जाता है, उस घर में वैद्य कभी नहीं आता क्योंकि लोग स्वस्थ बने रहते हैं।
वैसे स्वास्थ्य और पोषण को लेकर बाग्भट्ट, घाघ जैसे विद्वानों सहित हमारे शास्त्रों में आचार-विचार, आहार-विहार को संबंधी विशद व्याख्या है लेकिन व्यस्ततम दिनचर्या के अनुकूल निर्धारित मापदण्ड इसका महत्व खो चुके हैं। जब स्वयं के साथ समन्वय नही है तो प्रकृति के साथ तादात्म्य का चिन्तन अर्थहीन हो जाता है। हमे सब कुछ तत्क्षण चाहिये, इसके लिए मौसम के प्रतिकूल अनाज व फलों के सेवन सहित मिक्सर, आटाचक्की, प्रशीतक, वातानुकूलित, प्रेशर कुकर जैसे अवांछित साधनों का दुरूपयोग धड़ल्ले से हो रहा है जो नित नई असाध्य बीमारियों को आमंत्रित कर रही हैं।
ईएमएस / 23 जून 22
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