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दायं चलना (लेखक- बलदेवराज गुप्त / ईएमएस)
29/11/2018
उस समय के राजनीतिक कारणों से उत्पन्न विसंगतियों के चलते दुनिया में पहला विश्वयुद्व 1914 में शुरू हुआ था। सौ साल बाद, भारत में पूर्व बहुमत वाली दक्षिण पंथी सरकार 2014 में बनी। आजाद भारत (1947) में ऐसा पहली बार हुआ है। केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बररे के बाद ही सृजनकारों (प्रगतिशील लेखकों, साहित्यकारों व पत्रकारों सहित) एवं कई बुद्धिजीवियों की ओर से ’पुरस्कार वापसी’ का एक सिलसिला चला। परिवर्तन की इस सफलता और प्रभाव ने दक्षिण-पंथी सरकार की नींद उड़ा दी। यों तो आजादी के बाद ही परिवर्तन की बयार चल पड़ी थी, पर थी धीमी। उस समय के कद्दावर राष्ट्रीय नेताओं पर जनता का भारी विश्वास था। जनता और नेताओं में परस्पर भरोसा था। विघटनकारी ताकतें बटे हुए भारत में मुखर नहीं हो पायी। मज़हब के पेट से पैदा हुआ पाकिस्तान इस्लामी और मुसलमान बाहुल्य होने के बावजूद जुड़वा (वेस्ट पाकिस्तान-ईस्ट पाकिस्तान-अब का बंगलादेश) होकर वजूद में आया था। एक ही धर्म (इस्लाम) होने पर भी वह एक जुट ना रह सका। टूट गया।
भारत जहां सब प्रकार के धर्म, मज़हब, सम्प्रदाय, फले फूले। सबकी शरणस्थली बना। जनतांत्रिक देश के रूप में उभरा। बटवारे की राख के ढेर तले, चिंगारी के रूप में एक सवाल दबा रह गया। हिन्दू मुसलमानों का भारत बॅंट गया था। मुसलमानों के हिस्से में दो पाकिस्तान आये थे। जो इस्लाम से जुड़े थे। शेष बचा भारत हिन्दू बाहुल्य था। वह हिन्दुओं के पास था। क्या वह केवल हिन्दुओं का भारत था। कांग्रेस सत्तारूढ़ थी। उसमें भी साम्प्रदायिक ताकतें मौजूद थीं पर नेहरू के वर्चस्व के कारण वह पुष्पित, पल्लवित नहीं हो पा रही थीं। उधर यूरोप वाले कूटनीतिज्ञ जवाहर लाल नेहरू को सोश्लिस्ट और वामपन्थी मानते थे। अमेरिका वाले तो उन्हें सीधे तौर पर कम्युनिस्ट मानते थे। नेहरू का रुख प्रगतिशील, समाजवादी और मानवता, शान्ति और विश्व संदर्भ में था। थर्ड वल्र्ड विकासशील देश पब्लिक सेक्टर, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की अगुवाई व शान्ति नेहरू दर्शन के आधार बिन्दु थे जो बाद में वर्षों में और आज भी भारतीय विदेश नीति का हिस्सा हैं।
शुरूआती दौर में कांग्रेस साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर गहन गभीर नहीं थीं हिन्दू मुस्लिम दोनों के भाईचारे और सौहार्द पर तो सक्रिय बनी रही पर ’’धर्म’’के मामले में वह निरपेक्ष ही रही। पर हिन्दू कट्टरपन्थियों ने ’धर्म’ दामन नहीं छोड़ा - मौका मिलते ही उसका राजनीतिक इस्तेमाल किया। नतीजतन यह सवाल कद्दावर होता चला गया और भारत यानि हिन्दुस्तान हिन्दू-देश है- और गर्व से कहो ’मैं हिन्दू हॅूं। इतिहास का अवलोकन अपने सन्दर्भो में करने पर तर्क देकर नतीजे अपने पक्ष में किये जा सकते हैं। वैसा ही आज की सत्ता कर रही है। बीती लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को ’वंश’ और ’परिवार’ से जोड़कर, यह कहा जा रहा है कि कोई भी वंश चार पीढ़ी तक दिल्ली की गद्दी पर नहीं टिक पाया है। जन संघ से निकली भारतीय जनता पार्टी स्वंय सेवकों (आरएसएस) को सीढ़ी बनाकर सत्ता पर स्थापित हो गयी है। दक्षिण-पंथी सोच वाली ’प्रो-कारपोरेट’ पार्टी ने सबसे पहले ’भ्रष्टाचार’ और ’कालेधन’ की आड़ में कुबेर व्यवस्था को कब्जाने का प्रयास किया। आज भाजपा विश्व की सबसे बड़ी और सबसे धनवान राजनीतिक पार्टी बन चुकी है। उसके पास करोड़ों की सम्पत्ति है। इसके लिये भाजपा ने कांग्रेस शैली के हर र्फामूले को भिगोकर और भगवाकर अपनाने में गुरेज नहीं किया। दूसरों की पत्तल से अपनी थाली सजाने व कारोबार में उन्हें महारथ हॉसिल थी। भाजपा के लिये कोई पॅूजीपति सीधे सामने नहीं आया।
सामान्य और निम्न मध्यम वर्ग के नेतृत्व को ही सत्ता गोल प्राप्ति में उपयोग किया गय। राजा भोज को गंगू तेली ने पटखनी दे दी थी। चाणक्य को मगध नरेश से प्रतिशोध लेने के लिये जैसे एक अदद हठी जुझारू सामान्य वर्ग के चन्द्रगुप्त की जरूरत थी। भाजपा को आर एसएस और आरएसएस को ऐसे चेहरे की- जो ’विजयश्री’ दिला सके। पूंजीपतियों ने ऐसा मोहरा तलाश लिया था। दॉव लगाया और कार्पोरेट-जगत ने हिन्दुस्तान का शासन हासिल कर लिया। ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत हथियाने में बरसों लगे थे, पर हमारे कार्पोरेट वर्ल्ड ने निम्न मध्य वर्ग के हाथों में पृतक्ष्य नेतृत्व देकर लोकतंत्र की आड़ मेूं ’सब ले लिया। आज दुनिया की सबसे धनवान और बड़ी पार्टी भाजपा की हिन्दुस्तान में हुकूमत है। उनके हिसाब से गरीबी और बेरोजगारी कमोबेश दूर हो चुकी है। नोटबन्दी के बाद भ्रष्टाचार खत्म हो चुका है। मंहगाई खुद अपनी मौत मर चुकी है। क्योंकि देश की सत्ता और रहनुमाई एक सामान्य जन के हाथ में है।
आम जनता, धर्म, सम्प्रदाय, रंग, खान-पान (मीट की वैरायटी) और तेरा नाम, मेरा नाम में मश्गूल हो गई है। कार्पोरेट वाले हर कदम को ’इवेंट’की तरह मानते हैं, दिखाते हैं। बेरोजगारी, भूख आम आदमी की कद्र और हकूक बोथरे मुद्दे हो चुके हैं जिन्हें सूखे और गीले कचरे की तरह हरे व नीले डस्टविन के हवाले कर दिया गया है।सोने का अंडा देने वाली मुर्गी न सही पर चिड़िया के पर निकलने लगे हैं। स्थापित संस्थाओं की जड़ों को खोदकर तलाशी ली जा रही है। पिछले कुछ सालों की लम्बित समस्याओं का तोड़ निकाल लिया गया लगता है। सब ठीक ठाक है । क्योंकि तेल लगाने वाले और तेल बेचने वाले सब एक हो गये हैं। बस एक काम बाकी है: भारत और भगवान को बचाने का। कार्पोरेट वालों ने ’वारन्टी’ दी है। अगर जनता 2019 में 2014 को दोहरा दें तो बाकी का काम शाह, साहूकार और कार्पोरेट वाले पूरा कर देंगे। जब जनता दखिन लग जायेगी तो दक्षिणपन्थी आएंगे ही। अब बाएं नहीं पर ’दाएं चलना’ होगा। दाएं चलना - सलाह है, सवाल है, चिन्ता है या चेतावनी। सोचिए।
लेखकः वर्तमान में प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया के मेंबर है।
29नवंबर/ईएमएस
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